भूमिका
यदि हम विश्व में प्रचलित कलाओं को विभिन्न भागों में विभाजित करें तो सिनेमा
को सातवीं कला कहा जाएगा। चलचित्र की कलाएं विभिन्न कारणों के आधार पर सरलता से
समझी जाती हैं और वह चित्रकला, साहित्य तथा संगीत की तुलना में अधिक लोकप्रिय और सामूहिक
होती हैं। दूसरी ओर चूंकि सिनेमा एक उद्योग है इस लिए व्यापक स्तर पर फिल्म
निर्माण, प्रदर्शन और मार्केटिंग इस क्षेत्र में
महत्वपूर्ण होता है और इन्ही विशेषताओं के कारण इसे लोकप्रियता भी प्राप्त है।
सिनेमा संपर्क क्षेत्र में टीवी के बाद एक अत्याधिक महत्वपूर्ण साधन है और इसके
प्रभाव को समाज और लोगों के मध्य अत्याधिक महत्व प्राप्त है|
हर फिल्म को विभिन्न उद्देश्यों के लिए बनाया जाता है। कभी यह मनोरंजन का साधन
होती है तो कभी भावनाओं और विचारों का वर्णन करने का काम इस से लिया जाता है और
अधिकतर इसका उद्देश्य पूंजीनिवेश होता है। फिल्म विचारों और शैलियों को व्यवहारिक
बनाने का एक साधन भी समझी जाती है किंतु सिनेमा की महत्वपूर्ण उपयोगिता को कला,
संपर्क और उद्योग जैसे तीन भागों में बांटा जा
सकता है। आर्ट फिल्म में,
फिल्म का ढांचा मज़बूत होता है और कहानी
कलात्मक रूप में पेश की जाती है। इसमें विभिन्न दृश्यों का स्थान,
रंग, आवाज़, एडिटिंग, फोटोग्राफी, सेट तथा समय पर पूरा ध्यान दिया जाता है और
इसका पूरी फिल्म पर प्रभाव भी बहुत होता है। कमर्शियल फिल्मों में दर्शकों,
राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों और बाज़ार की
मांग पर काफी ध्यान दिया जाता है किंतु शायद यह कहना सही है कि फिल्म का सब से
अधिक प्रभावशाली पहलु संपर्क होता है जिस पर सभी युगों और देशों में ध्यान दिया
जाता है| वैसे इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि फिल्म के यह तीनों क्षेत्र एक
दूसरे से अत्याधिक जुड़े हुए हैं और इन की स्थिति एक सांस्कृतिक,
आर्थिक व सामाजिक त्रिकोण के जैसी है।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और वर्तमान शताब्दी के प्रथम दस वर्षों में
आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय लोगों ने अपनी
रचनात्मकता को दर्शकों के सामने पेश किये और इस प्रकार से वह अपनी कला और सिनेमा
को विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने में सफल रहे और दर्शक थियेटरों तक खिंचे चले
आए। दूसरी ओर विषय और उसके स्तर में भी परिवर्तन और आकर्षण नज़र आया। सिनेमा ने
अपनी इस यात्रा में कहानी, प्रदर्शन, संगीत, व्यंग्य तथा इफेक्ट जैसी चीज़ों से भरपूर लाभ
उठाया और समाजों को बदलने में मुख्य भूमिका निभाई। यहां तक के आज की सभ्यता की एक
विशेषता तथा आधुनिकता की एक पहचान के रूप में सिनेमा को देखा जाने लगा।
आज सिनेमा पूरे विश्व में मनोरंजन का बहुत बड़ा साधन बन चूका है| हजारों भाषाओँ
में फ़िल्में बन रही हैं| एक-एक देश में कई-कई भाषाओँ में फिल्मों का निर्माण जारी
है| सभी फिल्मों की अपनी विशेषताएं हैं| कुछ विश्व स्तर पर तो कुछ नेशनल स्तर अपनी
शुहरत रखती हैं| कोई कहानी को लेकर तो कोई तकनीक में अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए
हैं| उन्हीं में से ईरानियन सिनेमा भी है जिसकी शुहरत की गूँज विश्व के कोने कोने
तक है| जिसके के बारे में आलोचक सकारात्मक राय रखते हैं| ईरानियन सिनेमा के ही कुछ
घटकों पर आगे विचार करने की कोशिश की जा रही है|
IRANIAN FILM
INDUSTRY जिसे सिनेमा ऑफ़ ईरान या PERSIAN CINEMA
भी कहा जाता है| ईरानियन फिल्म इंडस्ट्री हर साल बेशुमार
कमर्शियल और आर्ट फ़िल्में बनाती है| बहुत से ईरानियन फिल्मों को विश्व ख्याति भी
प्राप्त है|
1990 के दहाई से ही ईरानियन सिनेमा फिल्मों के निर्यातक में विश्व स्तर पर अहम
भूमिका निभा रहा है| बहुत से आलोचक ईरानी सिनेमा को दुनिया के मुख्य
अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा का हिस्सा मानते हैं| विश्व प्रसिद्ध ऑस्ट्रलियन फिल्म मेकर
MICHAEL
HANEKE और मश्हूर
जर्मन फिल्म मेकर WARNER HERZOG के साथ साथ बहुत से फिल्म आलोचकों ने विश्व के सबसे बेहतर कलात्मक फिल्मों की
सूची में ईरानी फिल्मों को भी सराहा है|
ईरान में सिनेमा
का आरंभ
ईरान में सिनेमा किस प्रकार से आया? क्या जिस प्रकार से पश्चिम में उसका विकास हुआ
उसी प्रकार से ईरान में भी सिनेमा ने तरक्की की ? तो इन प्रश्नों के उत्तर में यह कहा जाएगा कि
सिनेमा जब ईरान पहुंचा तो उस समय काजारी शासकों के लिए मनोरजंक बना। सब से पहला ‘फिल्म
कैमरा’ वर्ष 1900 में क़ाजारी शासक मुज़फ्फरुद्दीन के काल में ईरान पहुंचा। यह
कैमरा इस काजारी शासक की युरोप यात्रा तथा पश्चिम की इस खोज पर उसके आश्चर्य का
परिणाम था। इस यात्रा में मुज़फ्फरूद्दीन के साथ युरोप की यात्रा करने वाले
फोटोग्राफर, मीरज़ा इब्राहीम खान अक्कास बाशी ने नये प्रकार
के इस कैमरे को चलाना सीखा और फिर उससे काजारी दरबार के अधिकारियों के बारे में एक
डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनायी। ईरान में सब से पहली फिल्म वर्ष 1905 में दिखायी गयी और इस प्रकार से ईरान में फिल्म
निर्माण की लंबी यात्रा का आरंभ हुआ। उसके बाद कई लोगों ने ईरान में फिल्म निर्माण
में रूचि ली।
वास्तविकता यह है कि ईरान में फिल्म प्रदर्शन का आरंभ दरबारों,
संपन्न लोगों और फिर विवाह व पार्टियों में
हुआ। फिल्म को महिलाओं और पुरुषों को अलग अलग दिखाया जाता। ईरान में सिनेमा का
आरंभ करने वाले कलाकारों को वास्तव में ईरान में फिल्म निर्माण आरंभ करने वाले के
रूप में भी देखना चाहिए कि जिन्हों ने फिल्म बनायी और लोगों
के सामने उनका प्रदर्शन करके अपना काम आरंभ
किया। परेड, तेहरान के रेलवे स्टेशन का उद्घाटन,
उत्तरी रेलवे का आरंभ तथा सरकारी कार्यक्रम आदि
ईरान के आरंभिक फिल्मों के विषय हैं और यह काम ईरान मे कुछ गिने चुने लोग ही करते
थे किंतु देखने वालों की संख्या बहुत अधिक होती थी। उसके बाद ईरान में सिनेमा
उद्योग बड़ी तेज़ी से फैला और ईरान में सब से पहला सिनेमा हाल तेहरान के भीड़ भाड़
वाले क्षेत्र में बनाया गया|1904 में मिर्ज़ा इब्राहीम खान ने तेहरान में सबसे पहला
मूवी थिएटर खोला| 1930 आते आते तेहरान में 15 थिएटर थे|
1925 में OVANES OHANIAN ने ईरान में एक फिल्म स्कूल खोलने का फैसला किया|
जिसका नाम “ parvaresh-gahe Artistiye cinema” रखा| ईरान में सिनेमा के आरंभ के
संदर्भ में एक रोचक बात यह है कि ईरान में वर्ष 1927 में महिलाओं से विशेष सिनेमा
हाल बनाया गया और यह उस समय की बात है कि जब तत्कालीन विश्व के बहुत से देशों में
लोगों ने सिनेमा का नाम भी नहीं सुना था और फिल्म के प्रदर्शन का उनके निकट कोई
अर्थ नहीं था।
पहली ईरानी
फिल्म
पहली ईरानियन मूक फिल्म “हाजी आगा” थी जिसको
प्रोफेसर ovanes ohanian ने 1930 में बनाया| उसके बाद इन्होंने ही एक और
मूक फिल्म 1932 में ”आबी व राबी” बनाई| यह मूक फिल्म आबी
व राबी नामक दो जोकरों की कहानी थी जिनमें से
एक लंबे क़द और और दूसरा ठिगने कद का था| ईरान
की पहली संवादों वाली फिल्म दुख्तरे लुर ( LOR GIRLS) है जो भारत के मुंबई नगर में
ईरानी कलाकारों के साथ बनायी गयी इस फिल्म को ‘अब्दुल हुसैन सेपेन्ता’ (sepanta)
और ‘अर्दशीर ईरानी’ ने वर्ष 1933 में बनाया और तेहरान के सिनेमा हालों में उसे दिखाया
गया। इस फिल्म को दर्शकों को बहुत सराहा तथा उसे इस फिल्म के मुख्य चरित्रों ‘जाफर’
व ‘गुलनार’ के नाम से ख्याति प्राप्त हुई। इस फिल्म की लोकप्रियता इस बात का कारण
बनी कि ईरान में सिनेमा से जुडे लोगों ने फिल्म निर्माण पर अधिक ध्यान दिया और
उनके प्रयासों से ईरान में सिनेमा एक महत्वपूर्ण कला के रूप में उभरने लगा। उसके
बाद ईरान में सिनेमा में प्रगति की गति तेज हुई और धीरे धीरे सिनेमा शहरों में
नागरिकता का एक प्रतीक बन गया। उस काल में ईरान में सिनेमा को इतनी गंभीरता से
लिया गया कि सिनेमा हालों, प्रदर्शन, फिल्मों की गुणवत्ता तथा टिकट बेचने आदि जैसे
विषयों में नये नियम बनाए और लागू किये गये।
ईरान में फिल्मों के प्रदर्शन की प्रक्रिया,
विदेशी और ईरानी फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही
तेजी से आगे बढ़ी और ईरान के बहुत से लोग कला के इस क्षेत्र में सक्रिय हो गये।
ईरान के विश्व प्रसिद्ध कवि फिरदौसी ( Ferdowsi) की जीवनी पर फ़िल्म बनी और इस
फ़िल्म में युद्धों को दिखाए जाने के कारण शाहनामे की सहस्त्राब्दी नामक सामारोह
में इस फ़िल्म को दिखाया गया और विदेशी अतिथियों को इस फ़िल्म के साधन से ईरानी
सिनेमा की जानकारी दी गयी। इसके बाद Shirin और Farhaad पर फिल्म बनी जो कि एक
पुरानी ईरानियन लव स्टोरी थी| इसी प्रकार Laila and majnoon फिल्म बनाई गई| 1937
में नादिर शाह पर Black Eyes नामी फिल्म
बनी| चूंकि ईरानी जनता इन कहानियों और उनके पात्रों से भली भांति अवगत थी इस लिए
उन्हें फ़िल्म में चलते फिरते देखने की उनकी जिज्ञासा बढ़ती गई|
बाहरी वर्चस्व
किंतु ईरानी सिनेमा की यह स्थिति अधिक दिनों तक न चल सकी और बिना किसी योजना
के विदेशी फिल्मों की भरमार तथा नये ईरानी फ़िल्मकारों की आर्थिक समस्याओं के कारण
अच्छी फिल्में बनाने वाले
लोग किनारे हट गये और लचर कहानियों और आम लोगों की पसन्द को ध्यान में रख कर बनायी
जाने वाली फिल्मों में फ़िल्मकारों की रूचि बढ़ने लगी। इसके अलावा दूसरा विश्व
युद्ध भी ईरानी सिनेमा में मंदी का एक मुख्य कारण रहा| हालाँकि ईरान ने युद्ध में
निष्पक्ष रहने की घोषणा कर दी थी लेकिन समय बीतने के साथ ही,
इस नीति को छोड़ने के लिए ईरान पर युरोपीय दबाव
बढ़ने लगा। सिनेमा के क्षेत्र में ईरान के बाज़ार के बड़े भाग पर जर्मनी का
क़ब्ज़ा था। उस समय के अधिकांश थियेटरों ने जर्मन सरकार की आर्थिक सहायता के कारण
जर्मनी की फिल्मों को दिखाने को प्राथमिकता दी और दशा यह हो गयी थी कि ईरान में
नाज़ियों की नीतियों का समर्थन करने वाली युद्ध की फिल्में भी दिखायी जाने लगीं।
वर्ष 1941 में जर्मन विरोधी मोर्चे द्वारा ईरान पर अधिकार के बाद रूसियों ने
तेहरान के सिनेमा हालों पर क़ब्ज़ा करना आरंभ किया| वह इन सिनेमा हालों में रूसी
फिल्मों का प्रदर्शन करके कम्यूनिज़्म का प्रचार करते| अग्रेज़ों ने इस प्रकार से
हंगामा मचा कर अपने हितों की पूर्ति का प्रयास नहीं किया। बल्कि उन्होंने सब से
पहले थियटरों को ईरान ब्रिटेन सांस्कृतिक केन्द्र बनाया और फिर युद्ध संबंधी
फिल्मों का अनुवाद का काम आरंभ किया और इसी के साथ फ़िल्म और सिनेमा से संबंधित
विभिन्न प्रकार के पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ कर दिया।
उम्मीद की
किरण
लेकिन संवाद के साथ “तूफाने
ज़िन्दगी” नामक प्रथम ईरानी फ़िल्म के निर्माण से ईरानी फ़िल्मकारों में नया
उत्साह उत्पन्न हुआ। इस फ़िल्म का निर्देशन ‘अली दरिया बेगी’ ने किया था और फ़िल्म
में एक प्रेम कहानी के साथ ही साथ नैतिक मूल्यों का प्रचार किया गया था और धन की
लालसा तथा सांसारिक मोहमाया की आलोचना की गयी थी। तूफाने ज़िन्दगी नामक इस फ़िल्म
को वर्ष 1948
ईसवी में दिखाया गया और शायद इस फ़िल्म को एसी पहली ईरानी फ़िल्म कहा जा सकता है
जिसके सभी भाग और तत्व ईरानी थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह फ़िल्म ईरानी
फ़िल्मकारों के लिए उस काल में एक नये आरंभ के रूप में जानी जाती है। धीरे धीरे
तेहरान में कई फ़िल्म कंपनियां और स्टूडियो बनाये गये यहां तक कि फ्रांस,
जर्मनी और तुर्की जैसे देशों के साथ संयुक्त
रूप से फ़िल्म बनाने का काम भी आरंभ हुआ।
उस काल के आलोचकों के विचार पढ़ने से पता चलता है कि उस काल में फिल्मों की
संख्या में वृद्धि तो हुई किंतु उनकी गुणवत्ता कम हो गयी। आंकड़ों के अनुसार ईरान
में वर्ष 1979 तक 63 फिल्में बनायी गयी थीं जिनमें से 50 फिल्में वर्ष 1952 से 1968
तक के मध्य बनायी गयी थीं|
1953 में
अमरीका द्वारा सैन्य विद्रोह के बाद की स्थिति
वर्ष 1953 में अमरीका द्वारा कराए गये सैन्य विद्रोह के बाद से वर्ष 1978 में
जन क्रांति की चरम सीमा तक कि जिसके परिणाम में इस्लामी क्रांति सफल हुई,
ईरानी सिनेमा रेत पर घरौंदे बनाता रहा जिसका
कोई आधार नहीं था। ईरान की शाही सरकार, विषैले सांस्कृतिक वातावरण में फ़िल्मकारों को
अश्लील और आधारहीन फिल्में बनाने पर प्रोत्साहित करती और इस प्रकार की सभी फिल्मों
में मनुष्य की पाश्विक इच्छाओं का ही अत्यन्त आलोचनीय रूप में चित्रण किया जाता
था। अश्लील विषय, अमरीकी व भारतीय सिनेमा की नकल,
अनैतिकता तथा भोंडे गीत संगीत इस काल की
फिल्मों की विशेषताएं हैं। रोचक बात यह है कि इस प्रकार के सीन कभी कभी फ़िल्म की
कहानी से पूर्ण से असबंधित होते और कभी कभी तो फ़िल्म को बीच में रोक कर इस प्रकार
के सीन दर्शकों को दिखाए जाते। इसके अतिरिक्त पूरी फ़िल्म ब्लैक एंड वाइट होती
जबकि अश्लील सीन रंगीन होता ताकि दर्शक अधिक ध्यान से इन दृश्यों को देखें।
ईरान के नागरिक व ग्रामीण जीवन की ग़लत छवि, विभिन्न जातियों व भाषाओं तथा स्थानीय संस्कृति
का उपहास और धर्म तथा धार्मिक शिक्षाओं का मखौल उड़ाना इस प्रकार की अधिकांश
फिल्मों का विषय होता था। इस प्रकार की सभी फिल्मों अधिकांश रूप से वर्ष 1957 से 1978
के मध्य बनायी गयीं। इसके अलावा गुंडों और असामाजिक तत्वों और आवारा लोगों को इन
फिल्मों में कुछ इस प्रकार से दिखाया जाता कि समय बीतने के साथ ही समाज में उन्हें
बुरा समझने की भावना समाप्त हो गयी और इसे इतना अधिक दिखाया गया कि समाज में
उन्हें बहुत से लोग आदर्श के रूप में भी देखने लगे। वैसे इस काल में भी कुछ गिने चुने फ़िल्मकारों ने
मूल्यवान फिल्में बनायी और बहाव की विपरीत दिशा में तैरने का प्रयास किया। वर्ष 1970
के आरंभ में ‘The Cow’ नामक फ़िल्म बनायी गयी जिसे ईरान में इस्लामी क्रांति की
सफलता से पूर्व ईरानी सिनेमा के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ कहा गया। इस फ़िल्म
में ईरानी फ़िल्म जगत में कमाई के सभी मंत्रों व शैलियों को धता बताया गया किंतु
इसके बावजूद इसका भरपूर स्वागत हुआ और अश्लील फिल्में बनाने वाले सकते में पड़
गये। cow नामक इस फ़िल्म में जिसका निर्देशन ‘दारियूश मेहरजू’ (Darius Mehrjui) ने किया है, एसे ग्रामीणों के जीवन को दर्शाया गया है जो
आधुनिकता के आक्रमण का शिकार हो जाते हैं और परिस्थितियां यहां तक पहुंच जाती हैं
कि उनकी परंपराएं और संस्कृति पूर्ण रूप से खतरे में पड़ जाती है। the cow ईरानी
सिनेमा के इतिहास की एक अत्यन्त उत्कृष्ट रचना है जिसे विश्व के कई फ़िल्म
सामारोहों में भी भरपूर्ण रूप से सराहा गया है और आज भी इसे ईरानी सिनेमा की एक
महत्वपूर्ण फ़िल्म का स्थान प्राप्त है।
1978 यह ऐसा समय था कि जब ईरान की शाही सरकार भी असमंजस और चिंता में ग्रस्त
थी। देश की राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक और सांस्कृति स्थिति से अप्रसन्न जनता
ने धीरे धीरे अपने आक्रोश को खुल कर प्रकट करना आरंभ कर दिया था,
लोग अत्याचारी सरकार के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे
और उसे पतन के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया था।
इस वर्ष मसऊद कीमयाई (Masood Kimiay) के
निर्देशन में बनने वाली फिल्म ‘सफरे संग’ ने अच्छी कमाई की थी और इस फिल्म की
सफलता का कारण उसकी अच्छी तकनीक और फिल्म का विषय था जो उस समय के समाज की
परिस्थितियों के अनुकूल था। सफरे संग नामक फिल्म की सफलता के बावजूद फिल्मकारों ने
अन्य फिल्मों द्वारा व्यापार न किये जाने और जनता में फिल्मों के प्रति अरुचि के
कारण सेनेमा हाल बंद कर दिये। कहने का सीधा सा अर्थ यह है कि क्रांति का प्रभाव
फिल्म इंडस्ट्री पर भी पड़ा|
इस्लामी क्रांति के बाद की स्थिति
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता और इस्लामी व्यवस्था की स्थापना के साथ ही
न केवल यह कि ईरान को राजनीतिक व सामाजिक दृष्टि से नया जीवन प्राप्त हुआ बल्कि
ईरान की कला और संस्कृति भी नये चरण में प्रविष्ट होकर मौलिक परिवर्तनों की ओर
उन्मुख हो गयी। ईरानी सिनेमा ने उस के बाद से नया मार्ग अपनाया और यह मार्ग,
अतीत के विपरीत, प्रगति व विकास का मार्ग था। ईरानी सिनेमा को
पश्चिम के चंगुल से स्वतंत्र कराना, सिनेमा के आर्थिक आधारों में सुधार,
युवा फिल्मकारों को प्रोत्साहन तथा फिल्मों और
दर्शकों को एक दूसरे से जोड़ना, ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद ईरानी सिनेमा के
नये जीवन में महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं रहीं।
यह भी एक वास्तविकता है कि ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद सिनेमा के लिए जो
उद्देश्य रखे गये उन की पूर्ति बहुत से फिल्मकारों बल्कि अधिकारियों के लिए भी
कठिन थे। क्रांति की सफलता के बाद ईरानी समाज की उतार चढ़ाव भरी परिस्थितियां और
ईरानी सिनेमा की अतीत की छवि एसे कारक थे जिसके आधार पर ईरानी सेनेमा की नयी राह
सरल नहीं थी। ईरान के अधिकांश लोग फिल्म की कला को एक अश्लील व अनैतिकता से भरी
कला समझते थे| लेकिन इसके बावजूद ईरान में
दो कारणों से सिनेमा को नवजीवन प्राप्त हुआ। पहला कारण यह था कि इस्लामी गणतंत्र
ईरान के संस्थापक ने सिनेमा को एक पवित्र व लाभदायक कला की संज्ञा दी जिससे अच्छी
और बुरी फिल्मों के मध्य रेखा खींच दी गयी। इमाम खुमैनी ने क्रांति के आरंभ में
अपने एक बयान में अच्छे व मानवीय सिनेमा की विशेषताओं का वर्णन किया और इन्हीं
विशेषताओं को अच्छी और खराब फिल्मों के मध्य अंतर की संज्ञा दी। उन्होंने विभिन्न
अवसरों पर फिल्म निर्माताओं को क्रांति के बाद बनने वाले स्वच्छ व स्वस्थ वातावरण
में काम करने पर प्रोत्साहित किया बल्कि उन्होंने cow नामक फिल्म जैसी कई फिल्मों
का उदाहरण भी दिया।
दूसरी ओर ईरान में क्रांति से पूर्व बनने वाली कुछ गिनी चुनी अच्छी फिल्में इस
बात का कारण बनीं कि क्रांति के बाद बनने वाली सरकार के अधिकारी ईरानी सिनेमा को
पूर्ण रूप से न नकारें और सकारात्मक सिनेमा को ईरानी समाज की एक आवश्यकता के रूप
में देखें। इसी लिए दारीयूश मेहर जू, अली हातमी, मसऊद कीमयाई, मेहदी सब्बाग़ज़ादे,
अमीर क़वीदिल तथा अन्य फिल्म निर्माता,
जो ईरान में क्रांति से पूर्व ही सिनेमा के
क्षेत्र में सक्रिय थे, नयी परिस्थितियों में निश्चिंत होकर अपना काम
करने लगे। इन लोगों ने क्रांति की सफलता से पूर्व भी तत्कालीन सिनेमा की राह से हट
कर फिल्में बनायी थीं इसी लिए इन लोगों ने क्रांति के बाद अधिक व्यापक स्तर पर
अपना काम आरंभ किया और कई फिल्में बनायी।
ईरान की नयी सामाजिक परिस्थितियों ने फिल्म के
क्षेत्र में युवा कलाकारों के आगमन की भूमिका तैयार की जिनकी दो किस्में थीं। एक
वह युवा थे जो क्रांति से पूर्व ईरानी सिनेमा की दुर्गत के कारण उससे दूर थे किंतु
क्रांति के बाद ईरानी सिनेमा जगत में आने वाले परिवर्तनों के बाद उन्होंने इस कला
में रूचि ली। दूसरी किस्म उन लोगों की थी जिन्हें सिनेमा जगत से रूचि थी और
क्रांति के बाद उन्होंने इसी विषय में डिग्री प्राप्त की और सिनेमा को अपने
विचारों के प्रचार का सब से अच्छा साधन समझा और अपनी फिल्मों द्वारा उन्होंने अपने
विचार पूरे विश्व के सामने रखे। ये लोग ईरान में क्रांति के बाद ईरानी सिनेमा जगत
के महत्वपूर्ण लोगों में बदल गये और इस दौरान ईरान की प्रभावशाली व महत्वपूर्ण
फिल्मों में से अधिकांश इन्हीं लोगों ने बनायी| इन लोगों में से अधिकांश वे लोग थे
जो सद्दाम की ओर से ईरान पर थोपे गये युद्ध के दौरान मोर्चों पर गये और युद्ध की
रिपोर्टिंग और रिकार्डिंग करते करते सिनेमा और फिल्मों से जुड़ गये।
क्रांति के बाद एक साल तक सिनेमा जगत बिलकुल ठप रहा| क्रांति के एक वर्ष बाद
कुछ एसी ईरानी फिल्मों को सिनेमा हालों में दिखाया गया जो क्रांति के पहले बनी थीं
किंतु उन्हें क्रांति के बाद के समाज व वातावरण में दिखाना संभव था। इन में से कुछ
एसी फिल्में भी थीं जो क्रांति के कारण अधूरी रह गयी थीं और उन्हें बाद में पूरा
किया गया था| इस वर्ष पूरे ईरान में केवल १४ फिल्में बनी। 1983 में सरकार ने इस ओर
भी ध्यान दिया और उसके बाद ईरानी फिल्म
उद्योग के विकास पर गंभीरता के साथ ध्यान दिया गया। इस प्रक्रिया के अंतर्गत,
क्रांति और इस्लामी व्यवस्था
के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार व प्रसार के
लिए सिनेमा को प्रभावशाली साधन के रूप में देखा गया और इसी विचारधारा के अंतर्गत सिनेमा
में विस्तार के लिए नियम व कानून बनाए गये। इस कार्यक्रम में कुछ बिन्दुओं पर
अत्याधिक बल दिया गया था जैसे देश की आवश्यकता के अनुसार भारी संख्या में फिल्मों
के निर्माण को आवश्यक बताया गया तथा इसके साथ ही इस बात पर भी बल दिया गया कि
फिल्मों की गुणवत्ता को बेहतर बनाया जाए और नयी पीढ़ी को अवसर दिया जाए। ईरानी
फिल्मों की सहायता के लिए फिल्म बोर्ड का गठन हुआ और नगरपालिका ने फिल्म बनाने
वालों की सहायता करने के लिए अपने टैक्स में भारी कमी कर दी। इसी प्रकार फिल्म के
टिकटों के मूल्य में वृद्धि की गयी और फिल्म निर्माण के लिए आवश्यक मशीनों के आयात
कर पूर्ण रूप से हटा लिया गया। इस प्रकार की
कार्यवाही के कारण फिल्मकारों को प्रोत्साहन मिला और वर्ष 1980 से ईरान में ईरानी सिनेमा
के नये युग का आरंभ हो गया।
वर्ष 1983 में एक समिति बनायी गयी जिसकी ज़िम्मेदारी सिनेमा हालों की दशा पर
ध्यान देना था। इस समिति का सब से महत्वपूर्ण काम, फाराबी सिनेमा संस्था (FARABI CINEMA
FOUNDATION) का गठन था, जो उसी वर्ष हुआ। इस संस्था को सरकारी नीतियों को लागू
करने तथा ईरानी सिनेमा उद्योग में प्रगति व विकास के लिए एक विभाग बनाने के
उद्देश्य से बनाया गया था। इस संस्था की पहली फिल्म ‘तातूरे क्यूमर्स’ पूर अहमद के
निर्देशन में बनी और इसके साथ इस संस्था में फिल्म निर्माण का काम अधिक तेज़ी के
साथ आगे बढ़ने लगा तथा इस संस्था के पास आधुनिक साधन भी उपलब्ध हो गये। इसी के साथ
फाराबी संस्था में उत्पादन, संस्कृति, विदेश, बाल फिल्म तथा युद्ध से संबंधी विभिन्न विभाग
बनाए गये और इस संस्था में फिल्म निर्माण की प्रक्रिया ने ईरानी सिनेमा में
क्रांति ला दी।
इस संस्था का दूसरा महत्वपूर्ण काम फज्र अंतरराष्ट्रीय
फिल्म महोत्सव FAJR FILM FESTIVAL का आयोजन था|
इस संदर्भ में पहला फिल्मोत्सव फरवरी वर्ष 1983 में एक अन्य नाम से आयोजित हुआ। यह फिल्म
फेस्टिवेल पहली से 11 फरवरी के बीच आयोजित हुआ और पहले फिल्मी मेले में 160 देशी
विदेशी फिल्मों को दिखाया गया। यह फिल्मी मेला बाद में ईरानी फिल्मों को पेश किये
जाने का एक महत्वपूर्ण अवसर बना और यह क्रम आज तक जारी है।
फाराबी फिल्म संस्था ने पटकथा लेखन के संदर्भ में नये विचारों और लेखकों को
प्रोत्साहित व प्रशिक्षित करने का बेड़ा उठाया। इसी प्रकार इस संस्था ने सिनेमा के
मार्ग से इस्लामी क्रांति की संस्कृति के प्रचार को देश से बाहर अपनी सब से अधिक
महत्वपूर्ण गतिविधियों में शामिल किया। विभिन्न प्रकार के अंततराष्ट्रीय फिल्मी
मेलों में भाग लेना और अलग अलग देशों में ईरानी फिल्म सप्ताह का आयोजन फाराबी
फिल्म संस्था की तत्कालीन गतिविधियों में से था। इसी काल में ईरान के विरुद्ध
सद्दाम द्वारा थोपे गये युद्ध से प्रभावित होने वाले फिल्मकारों ने भी गतिविधियां
आरंभ कर दी थीं और ईरानी सिनेमा में युद्ध के विषय पर फिल्मों का युग युद्ध से
प्रभावित इन्हीं कलाकारों और फिल्मकारों के परिश्रम का परिणाम है।
विशेषज्ञों का मानना है कि ईरानी सिनेमा जगत में नई लहर इसी
काल में आयी| जिसे हम IRANIAN NEW WAVE भी
कह सकते हैं |जो ईरान में फिल्म के विकसित होने व बाक़ी रहने की पृष्टिभूमि बनी।
मौजूद आंकड़ों के आधार पर वर्ष 1983 में हर दिन अवसतन लगभग 8
लाख व्यक्ति पूरे ईरान में सिनेमा हाल जाते थे|
इस काल में बनी फ़िल्मों की पहली खेप पारिवारिक थी और इसके दर्शक भी बहुत थे। जैसे
‘गुलहाए दाऊदी’ और ‘मतरसक’ जैसी फ़िल्मों से ईरानी सिनेमा जगत में मेलोड्रामा की
लहर आ गयी। ‘कानी मांगा’ और ‘उफ़ुक़’ नामक फ़िल्में इस काल की सबसे सफल फ़िल्में
थीं जिनसे लोगों की रूचि का पता चला।
अस्सी के दशक में ईरानी सिनेमा जगत की फ़िल्मों का दूसरा
वर्ग, युवा फ़िल्म निर्माताओं पर आधारित है जिन्होंने
क्रान्ति के पश्चात फ़िल्म निर्माण क्षेत्र में क़दम रखा था। इन निर्माताओं में
दर्शकों को अधिक आकर्षित करने की रूचि नहीं थी और उनकी फ़िल्में आम लोगों की पसंद
के मुद्दे पर आधारित नहीं होती थीं। ‘अली जकान’ ने अपनी फ़िल्म मादियान,
मसऊद जाफ़री जौज़ानी ने ‘जाद्देहाए सर्द’ और ‘शीरे
संगी’ नामक फ़िल्में और कियानूश अयारी ने ‘आन सूए आतिश’ और ‘तनूरे देव’ नामक
फ़िल्में विशेष दर्शकों के लिए बनायी थीं। हालांकि ये फ़िल्में बॉक्स आफ़िस पर
अधिक सफल नहीं रहीं किन्तु ईरानी सिनेमा जगत पर अमिट छाप छोड़ गयीं। इस बात का
उल्लेख भी करते चलें कि इस प्रकार की फ़िल्में देश के बाहर के फ़िल्म फ़ेस्टिवल व
कलात्मक समारोहों में बड़ी सराहना की जाती थी और उनमें से अधिकांश को पुरस्कार भी
मिलता था|
दारयूश मेहरजूई, मसऊद कीमयाई और अली हातमी जैसे फ़िल्म
निर्माताओं ने क्रान्ति के बाद भी अनेक फ़िल्में बनाई। ये फ़िल्में विभिन्न
सामाजिक विषयों, हास्य और मेलोड्रामा पर आधारित थी| इन लोगों की
फ़िल्में या तो ऐतिहासिक विषयों से मनोरंजन पर आधारित थीं या आम पारिवारिक व
सामाजिक विषयों को उन्होंने अपनी फ़िल्मों में प्राथमिकता दी थी।
इस पीढ़ी के फ़िल्मकारों में सबसे प्रसिद्ध वे लोग थे जिन्होंने पवित्र
प्रतिरक्षा के विषय पर फ़िल्में बनायीं थीं। इब्राहीम हातमीकिया,
और रसूल मुल्लाक़ुली पूर उन निर्माताओं में से
थे जिन्होंने अपनी फ़िल्मों में इस्लामी क्रान्ति और सद्दाम की सेना के आक्रमण के
मुक़ाबले में पवित्र प्रतिरक्षा के उद्देश्यों को बड़े अच्छे ढंग से चित्रित किया
और इस्लामी आस्थाओं को दैनिक वास्तविकता से जोड़ा। हातमीकिया जैसे निर्माता ने
बालकान युद्ध की वास्तविकताओं और बोस्निया में जातीय सफाए के विषय पर भी फ़िल्में
बनाईं और वे ईरानी दर्शकों को आकर्षित करने में सफल भी रहे।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद और अस्सी के दशक में सिनेमा जगत में
संख्या व गुणवत्ता की दृष्टि से काफ़ी प्रगति हुई और विभिन्न विचारों के फ़िल्मकार
सामने आए। लोगों ने भी दिन प्रतिदिन सिनेमा का अधिक स्वागत किया और इस प्रकार कहा
जा सकता है कि सिनेमा की प्रगति के लिए पूर्ण रूप से मार्ग प्रशस्त हो गया। अस्सी
के दशक के अंत में अन्य देशों ने भी ईरानी फ़िल्मों को अपने फ़िल्मी मेलों और
फ़िल्मी महोत्सवों में स्वीकार करना आरंभ किया जिससे ईरान की फ़िल्में संसार के
विभिन्न क्षेत्रों में प्रदर्शित होने लगीं। वर्ष 1990 में इटली के अंतर्राष्ट्रीय पेज़ारो फ़िल्म
फ़ेस्टीवल में पहली बार ईरानी सिनेमा के परिचय के संबंध में एक कार्यक्रम आयोजित
हुआ जिसमें ईरान की बीस फ़ीचर फ़िल्में और दो लघु फ़िल्में दिखाई गईं और इस प्रकार
विभिन्न फ़िल्मी मेलों में ईरानी फ़िल्मों के प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त हो गया।
इसी दौर में इंटरनैश्नल फ़िल्म गाइड जैसी विश्वस्त पत्रिकाओं ने अपने
विशेषांकों में ईरान के नवीन सिनेमा का परिचय देना आरंभ किया और आलोचकों ने ईरानी
फ़िल्मकारों की दक्षता के बारे में सविस्तार लेख लिखे।इस दौर की दो बातें
जिन्होंने ईरानी सिनेमा को भी प्रभावित किया| पहली बात मशहूर ईरानी निर्माता व
निर्देशक अब्बास किया रुस्तमी (ABBAS KIAROSTAMI) की सफलता से संबंधित है। उन्होंने यद्यपि
इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले ही फ़िल्मों का निर्माण आरंभ कर दिया था किंतु
इस्लामी क्रांति के बाद उन्हें सिनेमा जगत में अभूतपूर्व ख्याति प्राप्त हुई।
उन्हें वर्ष 1986 में ईरान में
आयोजित होने वाले पांचवें अंतर्राष्ट्रीय फ़ज्र (FAZR) फ़िल्म महोत्सव में ज्यूरी के विशेष पुरस्कार से
सम्मानित किया गया और उसके बाद उन्होंने ईरान से बाहर आयोजित होने वाले फ़िल्मी
मेलों में सबसे अधिक उपस्थिति दर्ज कराने का कीर्तिमान बनाया। किया रुस्तमी की
फ़िल्में एक के बाद एक उनकी विशेष शैली में बनती गईं और ईरानी सिनेमा की प्रगति का
मार्ग आसान करती गईं। फिर इसका नतीजा यह हुआ कि केवल वर्ष 1990
में ही ईरान की 85 फ़िल्में 83 अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में प्रदर्शित
की गईं|
एक अन्य बात जिसने उस समय ईरानी सिनेमा पर प्रभाव डाला,
तत्वज्ञान पर आधारित फ़िल्मों का सामने आना था।
अपनी वास्तविक सांस्कृतिक पहचान की प्राप्ति की खोज ने कुछ फ़िल्म निर्माताओं को
इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे भौतिक जीवन से दूर रह कर आध्यात्मिक विषयों पर
ध्यान केंद्रित करें। नब्बे के दशक में ईरान में बनने वाली अनेक फ़िल्में अध्यात्मिक
और तत्वज्ञान संबंधी विषयों पर बनाई गईं।
1990 का दौर
नब्बे के दशक के आरंभ में ऐसे अधिकतर फ़िल्मकार काफ़ी सीमा तक दक्ष हो गए
जिन्होंने वर्षों तक नवीन ईरानी सिनेमा के मार्ग में फ़िल्में बनाई थीं। इस्लामी
क्रांति से पहले के बचे हुए निर्माता व निर्देशकों ने भी अपनी सबसे मज़बूत
फ़िल्में इसी काल खंड में बनाईं। धीरे-धीरे सामाजिक सिनेमा को महत्वपूर्ण स्थान
मिलने लगा और एक्शन तथा घटना प्रधान फ़िल्में भी ईरानी सिनेमा से जुड़ने लगीं।
यहां तक कि इस विषय की फ़िल्मों के निर्माण की ओर बड़े-बड़े एवं विश्वस्त
निर्माता-निर्देशक भी उन्मुख हुए और उन्होंने दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींच लाने
के लिए एक्शन फ़िल्मों का निर्माण आरंभ किया। इन परिस्थितियों में सरकारी
प्रोत्साहन और देश में आयोजित होने वाले फ़िल्मी मेलों के पुरस्कार भी उन्हें
मिलने लगे। इसके बावजूद ईरानी सिनेमा की कुछ सबसे अच्छी फ़िल्में भी इन्हीं वर्षों
में बनाई गईं। सैफ़ुल्लाह दाद के निर्देशन में बनने वाली ‘बाज़मान्दे’,
‘मजीद मजीदी’ के निर्देशन में बनने वाली ‘बच्चेहाये
आसेमान’ एवं ‘पिदर’ तथा शहराम असदी निर्देशित ‘रूज़े वाक़ेए’ ऐसी ही फ़िल्में हैं।
इतनी विविध फ़िल्मों के निर्माण के बीच क्रांतिकारी फ़िल्मकार भी पूरी शक्ति के
साथ अपने काम में जुटे हुए थे और इराक़ द्वारा थोपे गए युद्ध के समापन के बावजूद
इस युद्ध के बारे में फ़िल्मों का निर्माण जारी था। इब्राहीम हातमी किया ने ‘अज़
करख़े ता रायेन’, ‘ख़ाकस्तरे सब्ज़’,
‘आजान्से शीशेई’ और कई अन्य सफल फ़िल्में युद्ध
के विभिन्न आयामों के बारे में बनाईं जिनका प्रभाव सिनेमा प्रेमियों के मन में
सदैव बाक़ी रहेगा। ‘रसूल मुल्ला क़ुली पुर’ (RASOUL MULLA GHOLIPOUR) ने भी,
जो आलोचनात्मक शैली में बड़े स्पष्ट रूप से
अपनी बात कहने और रणक्षेत्र के दृश्यों के पुनर्निर्माण में बहुत अधिक दक्षता रखते
हैं, युद्ध के बारे में ‘नजात याफ़तेगा’ और ‘सफ़र बे
चज़ाबे’ जैसी फ़िल्में बनाईं। इन फ़िल्मों में उन्होंने युद्ध के बारे में स्पष्ट
रूप से अपने विचारों को प्रस्तुत किया और समाज के कुछ वर्गों की कड़ी आलोचना भी की।
ईरानी सिनेमा के इतिहास की समीक्षा के संबंध में एक महत्वपूर्ण बिंदु नब्बे के
दशक के अंत में युवाओं की समस्याओं के दृष्टिगत सामाजिक फ़िल्मों का सामने आना है
कि जो अगले दशक अर्थात इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दशक में ईरानी सिनेमा के एक मुख्य
विषय में परिवर्तित हो गया। इसी प्रकार समाज में ईरानी महिला की भूमिका के नए
चित्र की प्रस्तुति पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया तथा कई महिला प्रधान फ़िल्में
सामने आईं। इसी प्रकार इसी दशक में कई राजनैतिक या राजनीति से प्रेरित फ़िल्मों का
भी निर्माण किया गया तथा राजनीति में उलझी हुई वृद्ध और युवा पीढ़ी के विषय पर कई
फ़िल्में दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत की गईं। ‘मसऊद कीमियाई’ (MASOUD KIMIAI) और
बहमन फ़रमान आरा(BAHMAN FARMANARA) की कई फ़िल्में इसी रुझान के अंतर्गत बनाई गईं
और उन्हें औपचारिक रूप से सराहा भी गया।
2000 के
बाद
नब्बे के दशक में ईरानी सिनेमा में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव आया।
यह वर्ष दो हज़ार एक से वर्ष दो हज़ार ग्यारह
तक के दशक में अर्थात इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद के तीसरे दशक में बहुत अधिक
अनुभव व ज्ञान के साथ प्रविष्ट हुआ। युवा पीढ़ी ने भी सिनेमा के मैदान में अपना
स्थान प्राप्त कर लिया था और बड़े एवं नामचीन फ़िल्मकारों की अनुपस्थिति में वे इस
लोकप्रिय कला के ध्वजवाहक थे। इस दशक के आरंभ में युवा फ़िल्मकारों की लहर ने
विभिन्न प्रकार की अपनी फ़िल्मों से सभी को चौंका दिया। ‘ईनजा चराग़ी रौशन अस्त’,
‘दीवानेई अज़ क़फ़स परीद’,
‘रक़्स दर ग़ोबार’ और इसी प्रकार की दसियों
अन्य फ़िल्में इस दशक के पहले वर्ष में बनाई गईं जिनका फ़िल्मी आलोचकों और फ़ज्र
फ़िल्मी मेले सरीखे सरकारी हल्क़ों ने स्वागत किया। अगले कुछ वर्षों में ऐसी
फ़िल्में बनाई गईं और सिनेमा घरों में प्रदर्शित की गईं जो लम्बे चौड़े बजट से
तैयार की गई थीं और दर्शकों को सिनेमा की ओर उन्मुख करने
का प्रयास कर रही थीं। इसके परिणाम स्वरूप इस प्रकार की फ़िल्मों के प्रति लोगों
की रुचि में वृद्धि होती चली गई। 2004 की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म AHMAD RAZA
DARVISH के निर्देशन में बनी ‘दोएल’ (DUEL) तकनीकी दृष्टि से उच्च कोटि की थी और उसने
ईरानी सिनेमा के मानकों का स्तर ऊँचा उठाया। ईरान सिनेमा के इतिहास की यह सबसे
ज़्यादा बजट में बनने वाली फिल्म है| इस दशक के आरंभिक वर्षों की फ़िल्मों की
समीक्षा के संबंध में एक महत्वपूर्ण बिंदु, पवित्र प्रतिरक्षा संबंधी फ़िल्मों का
पुनर्जागरण है जो कई वर्षों तक थमे रहने के बाद पुनः एक नए चरण में प्रविष्ट हुईं।
दोएल, मज़रअये पेदरी, अश्के सर्मा और गीलाने जैसी फ़िल्में इनमें
उल्लेखनीय हैं जो तकनीक, विषय वस्तु और पवित्र प्रतिरक्षा के संबंध में
एक नए दृष्टिकोण के चलते काफ़ी हिट रहीं। इसके अतिरिक्त इस दशक में फ़िल्मकारों ने
कुछ ऐसे विषयों पर भी फ़िल्में बनाईं जिन पर अब तक फ़िल्म नहीं बनाई गई थी। इन
फ़िल्मों के प्रदर्शन के संबंध में जो हंगामे हुए उन्होंने काफ़ी समय तक ईरानी
सिनेमा को कला व संस्कृति संबंधी समाचारों में सबसे ऊपर बनाए रखा जिसके कारण
आश्चर्यजनक रूप से बॉक्स ऑफ़िस फ़िल्में हिट होती रहीं।
इस दशक में हम ईरानी सिनेमा के अनेक अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को देखते हैं
जिन्होंने अमर भूमिकाएं निभाईं और सिनेमा की लोकप्रिय हस्तियों में नए प्राण फूंक
दिए। युवा व प्रशिक्षित अभिनेताओं के आगमन और पुराने व अनुभवी कलाकारों की पहले से
मौजूदगी ने संसार के समक्ष ईरानी कलाकारों के अभिनय का उच्च स्तर प्रस्तुत किया।
इस दशक में बनने वाली ‘असग़र फ़रहादी’(ASGHAR FARHADI),
रज़ा मीर करीमी, दारयूश मेहरजूई, रख़शान बनी एतमाद(RAKHSHAN BANI E’TEMAD)
इत्यादि की फ़िल्मों में काम करने वाले अभिनेताओं ने ईरानी सिनेमा में अभिनय के
मानकों का स्तर काफ़ी ऊँचा उठाया। इन कलाकारों ने लोकप्रियता की पारंपरिक परिभाषा
को बदल दिया और कहा जा सकता है कि इस दशक में फ़िल्मों में कलाकारों और अभिनय का
जो उच्च स्तर दिखाई देता है वह ईरानी सिनेमा के पूरे इतिहास के बराबर है। यही कारण
था अभिनय के स्कूलों की संख्या में, जो इससे पहले तक उंगलियों पर गिने जा सकते थे,
बड़ी तेज़ी से वृद्धि हुई और विशेषज्ञ स्तर की
क्लासों में अभिनय सीखने में रुचि रखने वालों की संख्या बढ़ती चली गई। सिनेमा और
रंगमंच के कालेजों में शिक्षा को भी अधिक गंभीरता से लिया जाने लगा
वर्ष दो हज़ार से दो हज़ार नौ तक के दशक के बीच ईरानी सिनेमा ने दो अन्य
माध्यमों से भी काफ़ी लाभ उठाया। पहला माध्यम रंगमंच था,
जहां से बड़ी संख्या में कलाकार सिनेमा जगत में
आए और दूसरा माध्यम टेलीविजन था। इस दशक में टीवी चैनलों की संख्या में वृद्धि के
कारण बड़ी संख्या में कलाकार टीवी कार्यक्रमों में आने लगे और उनमें से बहुत से
कलाकार सिनेमा जगत में भी सफल सिद्ध हुए।
अब तक ईरान के 64 अभिनेताओं और 58 अभिनेत्रियों को विदेशी फ़िल्मी मेलों में
पुरस्कार मिल चुक हैं जिससे पता चलता है कि ईरानी सिनेमा के कलाकारों के अभिनय का
स्तर कितना ऊँचा है। बर्लिन फ़ेस्टिवल में सिल्वर बेअर,
एशिया पेसिफ़िक फ़ेस्टिवल का पुरस्कार,
कार्लो वीवारी, मोन्ट्रियाल, लोकारनो और मास्को के फ़िल्म फ़ेस्टिवलों से
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता या अभिनेत्री का पुरस्कार, अभिनय के क्षेत्र में ईरानी सिनेमा के गौरवों
में से है। आपके लिए यह जानना भी रोचक होगा कि ईरानी फ़िल्म निर्देशकों के बीच
मजीद मजीदी (MAJID MAJIDI) को सबसे अधिक
पुरस्कार प्राप्त हुए हैं और उनके बाद असग़र फ़रहादी को इस क्षेत्र का सबसे सफल
निर्देशक माना जाता है।
एक और महत्वपूर्ण बात जो इस दशक में शुरू हुआ| ईरानी सिनेमा में स्टारडम नहीं
था। इस्लामी क्रांति से पहले का ईरानी सिनेमा जो पूरी तरह से स्टारडम में ग्रस्त
था, अचानक ही उससे गया हो गया और फिर काफ़ी समय तक
सिनेमा जगत सितारों से ख़ाली रहा। ‘अरूस’ UROOS नामक फ़िल्म, उन आरंभिक फ़िल्मों में से एक थी जिसने नब्बे
के दशक की शुरुआत में ईरानी सिनेमा को दो नए सितारे दिए और फिर स्टारडम की भुलाई
जा चुकी संस्कृति धीरे-धीरे ईरानी सिनेमा में फिर से लौटने लगी और अगले दशक में तो
इस प्रक्रिया में काफ़ी तेज़ी आई। अलबत्ता ईरान में स्टारडम का तात्पर्य है वह उसे
चीज़ से बहुत भिन्न है जो पश्चिमी सिनेमा में स्टारडम कहलाता है और अब भी ईरान में
नैतिकता व शिष्टाचार, स्टारडम की प्रमुख शर्तें हैं।
घरेलू चैनलों पर दिखाए जाने के लिए तैयार की गई फ़िल्मों और श्रृंखलाओं का
आगमन इस दशक के अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक है और इसने सिनेमा को
प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। घरेलू वीडियो चैनल के प्रचलन बढ़ने के कारण कई
फ़िल्म निर्माताओं ने इस चैनल के लिए फ़िल्में तैयार करना आरंभ किया। ये फ़िल्में
कम बजट की होती थीं और बड़े पैमाने पर बाज़ार में पेश किया जाता था जिसके चलते
इन्हें देखने वालों की संख्या भी बहुत अधिक होती थी। अलबत्ता इन फ़िल्मों की
गुणवत्ता एक स्तर की नहीं होती थी और इन्हें अच्छी, औसत और कमज़ोर श्रेणी की फ़िल्मों में बांटा जा
सकता है|
दूसरी ओर डबिंग में दक्ष ईरानी कलाकारों द्वारा डब की गई विदेशी फ़िल्मों के
मंडी में आने के कारण घरेलू चैनल की लोकप्रियता और बढ़ गई और लोग अन्य देशों की
अच्छी फ़िल्में देखने की ओर उन्मुख हुए। इन परिस्थितियों में ईरानी सिनेमा ने अगले
दशक में क़दम रखा जो इस समय जारी है। यह दशक ईरानी सिनेमा को अधिक विकास की शुभ
सूचना दे रहा है|
ईरानियन फिल्मों के
विभिन्न जोनरा (Genre)
एक सौ दस वर्ष से अधिक की आयु रखने वाले ईरान सिनेमा में GENRE की विभिन्न
आयामों से समीक्षा की जा सकती है। फ़िल्मों की बड़ी विविध श्रेणियां होती हैं
जिनमें से कुछ आपराधिक, मेलोड्रामा, कॉमेडी, युद्ध संबंधी, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, हॉरार या डरावनी, संगीत प्रधान, फ़ंतासी, बाल फ़िल्म, घटना संबंधी (फ़ेरी टेल),
खेल संबंधी तथा विज्ञान व फ़िक्शन इत्यादि हैं।
इन सब विधाओं का प्रयोग ईरानियन सिनेमा में किया गया| एक विधा ऐसी है जो ईरानी
सिनेमा के साथ ही ख़ास है| पवित्र प्रतिरक्षा के सिनेमा को ईरानी सिनेमा से ही
विशेष कहा जा सकता है और यह एकमात्र ऐसा जेनर है जो इस्लामी क्रांति की सफलता के
बाद अस्तित्व में आया है। यह एक ऐसी विधा है जिस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है|
पवित्र प्रतिरक्षा के
बारे में बनाई जाने वाली फ़िल्में
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के साथ कलाकारों ने नए-नए अनुभव
करने आरंभ किये और फ़िल्म निर्माताओं ने इनपर फ़िल्में बनाईं। पवित्र प्रतिरक्षा
पर फ़िल्में बनाना इन्हीं में से एक है| 22 सितंबर 1980 को सद्दाम ने ईरान पर आक्रमण कर दिया।
युद्ध के आरंभ के साथ ही ईरानी सिनेमा ने
रणक्षेत्र में प्रवेश किया। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि पिछले तीन दशकों
के दौरान ईरानी सिनेमा का एक सशक्त बिंदु वे फ़िल्मे हैं जिन्हें पवित्र
प्रतिरक्षा के विषय पर बनाया गया है। ईरान के महत्वपूर्ण फ़िल्म निर्माताओं में वे
हैं जिन्होंने प्रतिरक्षा के विषय पर फ़िल्में बनाई हैं।
वह प्रथम गुट जिसने थोपे गए युद्ध की घटनाओं की
तस्वीरें लेने के लिए युद्ध के मोर्चे का रुख़ किया फ़ोटोग्राफ़र थे।
ये लोग युद्ध ग्रस्त नगरों,
देहातों और छोटे बड़े सभी क्षेत्रों तक गए।
सईद सादेक़ी ईरान के ऐसे ही एक फोटोग्राफ़र हैं
जो सबसे पहले रणक्षेत्र की फ़िल्म लेने वहां पहुंचे थे।
ईरान के विरुद्ध सद्दाम की ओर से थोपे गए युद्ध
की समय सीमा के बढ़ने के साथ
ही फ़िल्म निर्माताओं विशेषकर डाक्यूमेंट्री बनाने वालों ने इस क्षेत्र की ओर अपने
क़दम बढ़ाए। “ख़ुर्रमशहर
शहरे ख़ून” और “शहरे इश्क़” वे फ़िल्मे हैं जो थोपे गए युद्ध के बारे में
बनाई गई थीं। इसके कैमरामैन
महमूद बहादुरी थे। यह फ़िल्में
उन फ़िल्मों में हैं जिन्हें 1982 के प्रथम फ़ज्र फ़िल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित किया गया था।
इसके अतरिक्त “आबादान शहरे मज़लूम”
भी थोपे गए युद्ध के आरंभिक काल की एक
डाक्यूमेंट्री हैं जिसका निर्देशन मुहम्मद रज़ा इस्लामलू ने किया था।
युद्ध के विषय पर बनाई जाने वाली फ़िल्मों में
एक फ़िल्म का नाम “पुले आज़ादी” है। दो घंटे वाली इस फ़िल्म का निर्देशन ‘मेहदी
मदनी’ ने किया था जबकि कैमरामैन थे फ़रहाद सबा। यह फ़िल्म 1982 में बनाई गई थी। ईरान के ख़ुर्मशहर का अतिग्रहण हो जाने के बाद
ईरानी कमांडरों ने इसे स्वतंत्र कराने के लिए विभिन्न प्रकार की शैलियों पर विचार
किया। इन शैलियों
में से एक, कारून नदी पर एक पुल बनाना भी था।
पुले आज़ादी नामक फ़िल्म युद्ध की कठिन
परिस्थितियों में ईरानी जियालों द्वारा कारून नदी पर पुले आज़ादी बनाए जाने का
चित्रण करती है। बैतुल
मुक़द्दस सैन्य अभियान के दौरान ईरानी सेना इसी पुल के माध्यम से ख़ुर्रम शहर में
प्रविष्ट होने में सुफल हुई थी। इसी विषय को पुले आज़ादी में बड़े ही सुन्दर ढंग से
प्रस्तुत किया गया है।
सन 1982 में अहवाज़ नगर के छात्रों के एक गुट ने,
जिन्हें फ़िल्म बनाने में रुचि थी,
“गुरूहे चेहल शाहिद”
नामक फ़िल्म बनाई थी।
छात्रों का यह गुट सुपर-8
कैमरे के साथ मोर्चे पर पहुंचा था।
इनमे से 7 लोग, फ़िल्म बनाने के दौरान शहीद हो गए।
बाक़ी बचे छात्रो ने मोर्चे पर बहुत से चित्र लिए
जिनसे बाद में “आज़ादी ये ख़ुर्रमशहर”
नामक फ़िल्म बनाई गई।
इसके बाद
फ़िल्म निर्माण करने वालों के गुट ने सामूहिक रूप से एक टेलिविज़न धारावाहिक बनाया
जिसे राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न चैनेलों से प्रसारित किया गया।
इनमे से एक का नाम “शाहिदाने ईसार” और एक अन्य का “रवायते फ़त्ह” था जिसने रणक्षेत्र में रहकर थोपे गए युद्ध के
बारे में यादगार फ़िल्म बनाई।
इस दौरान बनाई जाने वाले डाक्यूमेंट्री
फ़िल्मों में “नीम निगाही बे जिबहये जुनूब”
“मरसिये हलबचे” और ज़िंदगी दर इरतेफ़ाआत”
का नाम लिया जा सकता है।
ईरानी सिनेमा में महिलाओं की उपस्थिति
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका और उनके द्वारा दायित्वों का
निर्वाह सदैव ही महत्वपूर्ण सामाजिक विषय रहा है और विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं
की भूमिका वास्तव में बड़े सामाजिक परिवर्तनों की कुंजी रही है| ईरान में इस्लामी
क्रांति के बाद, फिल्म उद्योग में बहु आयामी विकास हुआ और फिल्म
उद्योग में ईरान का नाम भी विश्व स्तर पर लिया जाने लगा और निश्चित रूप से ईरानी
सेनेमा के विकास में महिलाओं की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती क्योंकि महिला
कलाकारों ने भी पुरुषों के साथ ही राष्ट्रीय फिल्म उद्योग के विकास में पूरा सहयोग
दिया है और अलग थलग रहने के बाद सक्रिय भूमिका निभाई।
अगर बात की जाए ईरानी सिनेमा में महिलाओं की भूमिका की तो यह बात स्पष्ट है कि
80 के दशक के आरंभ में फ़िल्मों में महिला की भूमिका मामूली, घिसी-पिटी तथा पारंपरिक विचारों के अनुरूप होती थी। फ़िल्मों में महिलाओं को
ज़्यादातर मां की भूमिका दी जाती थी या दुख भरे मेलोड्रामा में स्वयं के त्याग
द्वारा दूसरों की सहायता करती हुयी दिखायी जाती थीं। अधिकांश फ़िल्मों में महिलाओं
की पीड़ित छवि को पेश किया जाता था|
लेकिन वक़्त गुजरने के साथ साथ
निर्देशकों में धीरे-धीरे
महिलाओं के वास्तविक जीवन को चित्रित करने का रुझान बढ़ा और उन्होंने महिलाओं से
संबंधित मामलों को उठाने का साहस दिखाया। इस प्रकार की फ़िल्मों में सबसे प्रसिद्ध
फ़िल्म ‘मादियान’ है जिसके निर्माता अली जकान थे। इस फ़िल्म में एक ग्रामीण महिला
को दिखाया गया है जिसे पति के मरने के बाद अपने और बच्चे के जीवन यापन में बड़ी
कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसकी कुल जमा पूंजि एक घोड़ी है जो उसका भाई
उससे लेना चाहता है। भाई से उसका झगड़ा इतना ख़तरनाक होता है कि जीने-मरने की नौबत
आ जाती है। इस फ़िल्म के बाद फ़िल्म निर्माता अपनी फ़िल्मों में और अधिक स्पष्ट
मामलों को पेश करने का प्रयास किया और महिला को वित्तीय स्वाधीनता, थोपे गए विवाह की बलि चढ़ने से बचाने यहां तक कि महिला के दूसरे विवाह के
मार्ग में आने वाली समस्याओं को पेश किया। यह प्रक्रिया नब्बे के दशक में तेज़
हुयी और ईरानी सिनेमा ने व्यवसायिक एवं आधुनिक फ़िल्मों में महिलाओं से संबंधित
विषयों पर ध्यान दिया। दारयूश मेहरजूई की फ़िल्मों में महिलाओं से संबंधित मामलों
पर इस प्रकार दृष्टि डाली गयी कि दूसरे फ़िल्म निर्माताओं की फ़िल्मों में इसका
उदाहरण लगभग नहीं मिलता। यह फ़िल्म निर्माता फ़िल्म ‘हामून’ में एक पुरुष और महिला के अपने आत्मिक शून्य को भरने के
प्रयास और इन दोनों में अंतर की समीक्षा करता है। किन्तु अपनी बाद की फ़िल्मों
जैसे ‘बानो’ ‘सारा’ ‘परी’ और ‘लैला’ में पूरी तरह महिलाओं के विषय
को पेश किया है।
मेहरजुई के इलावा दूसरे फ़िल्म निर्माताओं ने भी महिलाओं के
मामलों पर गंभीर रूप से ध्यान दिया। मेहदी फ़ख़ीमज़ादे के निर्देशन में बनी फ़िल्म
‘हम्सर’ सत्तर के दशक के आरंभ की
महत्वपूर्ण फ़िल्मों में है जिसमें एक पति को पत्नी के व्यवसायिक ओहदे से ईर्ष्या
करता है। इस फ़िल्म के साथ साथ इब्राहीम मुख़्तारी ने ‘ज़ीनत’ नामक हिट फ़िल्म में महिलाओं की सामाजिक गतिविधियों की
आवश्यकता पर बल दिया और ग़लत विचारों को चुनौती दी।
अलबत्ता उसी काल में महिला फ़िल्म निर्माता भी इस मंच पर
उपस्थित हुयीं और उन्होंने भी महिलाओं से संबंधित विषयों को बड़ी गंभीरता से पेश
किया। ‘रख़शान बनी एतेमाद’ ने भी महिलाओं की केन्द्र
भूमिका पर आधारित फ़िल्में पेश कीं और इस प्रकार विभिन्न सामाजिक समस्याओं का
सिनेमा के माध्यम उल्लेख किया। ‘नर्गिस’ ‘रूसरीए आबी’ ‘ज़ीरे पूस्ते शहर’ और ‘बानूए उर्दीबहिश्त’ इस फ़िल्म निर्माता की अ न्य फ़िल्में हैं जिनमें महिलाओं
को मूल भूमिका में दिखाया गया है।
ईरान में नारीवादी फिल्मों की लहर एक समय आयी और कुछ थोड़े
ईरानी निर्माताओं ने भी नारीवाद पर आधारित फ़िल्में बनायीं। तहमीना मीलानी की भी
इस वर्ग के फ़िल्म निर्माताओं में गणना होती है जो स्वयं को सिनेमा में नारीवाद का
ध्वजवाहक मानती हैं और उन्होंने अपनी सभी फ़िल्में लगभग इसी रुझान के साथ बनाती
हैं। तहमीना मीलानी की फ़िल्मों में पुरुषों की इस सीमा तक अनदेखी की जाती है कि
कुछ समीक्षक उन्हें पुरुष विरोधी बताते हुए उनकी फ़िल्मों की आलोचना करते हैं।
फ़िल्म निर्माता फ़रिश्ते ताएरपूर, महिलाओं से संबंधित मामलों पर अतिवादी दृष्टि को रद्द करती हैं और नारीवाद तथा
सामाजिक मंच पर महिलाओं की उपस्थिति के बारे में कहती है’ “मुझे पश्चिम में प्रचलित नारीवाद में विश्वास नहीं रखती और मेरे विचार में हर
महिला की स्थिति की उसके समाज की संस्कृति के अनुसार व्याख्या की जानी चाहिए। हमारे समाज में महिलाओं की सामाजिक प्रगति का अर्थ यह नहीं
है कि वे अमरीकी और योरोपीय महिलाओं जैसी हो जाएं। एक बुद्धिमान महिला को इस बात
को समझना चाहिए कि किस प्रकार वह अपने समाज व संस्कृति में किस प्रकार अपने से
पहले और बाद वाली पीढ़ी के लिए आदर्श बन सकती है।”
अगर ईरानियन फिल्मों में महिलाओं की अभिनय की बात की जाए और
ईरानी सिनेमा के 112 वर्षीय इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि बहुत सी फ़िल्मों में महिलाओं ने
भाग लिया किन्तु इसके बावजूद ऐसी फ़िल्में बहुत कम मिलेंगी जिनमें सामाजिक मंच पर
महिला की सही छवि पेश की गयी हो। ईरानी सिनेमा में महिला ने वास्तव में वर्ष 1932 में बनी फ़िल्म “हाजी आक़ा, आक्तोरे सिनेमा” में भूमिका निभाई। इस फ़िल्म की मुख्य पात्र एक लड़की है जो ऐसे व्यक्ति से
विवाह करना चाहती है जो सिनेमा जगत से जुड़ा है। हाजी आक़ा अर्थात परिवार का
स्वामी बेटी को इस विवाह से रोकता है। हाजी आक़ा का भावी दामाद, शहर के विभिन्न भागों में गुप्त रूप से लड़की की तस्वीर खींचता है और उसे
सिनेमा से परिचित कराता है।
ईरानी सिनेमा की पहली महिला अभिनेत्री आसिया क़ुस्तानियान
हैं कि उन्होंने हाजी आक़ा आक्तोरे सिनेमा नामक फ़िल्म सहित तीस के दशक में अनेक
फ़िल्मों में अभिनय किया।
इस्लामी क्रान्ति से पहले अधिकांश ईरानी फ़िल्म निर्माता
महिलाओं को फ़ैशन की अनुसरणकर्ता एवं विदित रूप से आधुनिक दर्शा कर फ़िल्म के
व्यवसायिक आकर्षण को बढ़ाने की कोशिश करते थे। उन फ़िल्मों में महिलाओं की कोई
स्पष्ट छवि नहीं थी और उनके चयन के समय भी उनकी अभिनय क्षमता पर भी अधिक ध्यान नहीं
दिया जाता था। उस समय के सिनेमा में महिला को घर में रहने वाली दुल्हन या भ्रष्ट
पार्टियों शोभा बढ़ाने वाली दुल्हन के रूप में दिखाया जाता था। वर्ष 1973 में ईरानी सिनेमा के व्यापारिक रूप से विफल होने के बावजूद महिलाओं से संबंधित
मामलों को पेश किया जाना प्रचलित था। इस कालखंड की फ़िल्मों में महिला, परिवार से धीरे-धीरे दूर और समाज की दृष्टि से बुरी एवं नकारात्मक भूमिका में
प्रकट हुयी। इस कालखंड की फ़िल्मों में महिलाओं के व्यवसाय पर दृष्टि डालते हैं तो
महिलाओं को मुख्य रूप से वेश्यावृत्ति व मनोरंजन करने वाली दिखाया गया है।
इस्लामी क्रांति के बाद महिलाओं की भूमिका शिक्षा,
सावर्जनिक सेवाओं के साथ फिल्मों में बढ़ी| महिलाओं को उच्च मानवीय स्थान प्राप्त
किया गया जिसके कारण इस्लामी क्रान्ति के बाद के वर्षों में फ़िल्म निर्माताओं
ने अपनी फ़िल्मों की मांग बढ़ाने के लिए महिला की उपस्थिति को एक हथकंडे के रूप
में प्रयोग न किया | बल्कि उनकी साफ सुथरी छवि की तरफ ध्यान केन्द्रित किया|
उसके बाद ‘रसूल सद्र आमुली’ की ‘गुलहाए दाऊदी’ जैसी
मेलोड्रामा फ़िल्म के निर्माण के साथ ही धीरे-धीरे फ़िल्मों में महिलाएं आने लगीं।
हालांकि यह उपस्थिति बहुत व्यापक नहीं थी और महिलाएं मुख्य भूमिका नहीं निभाती थीं
किन्तु कुछ वर्ष बाद ईरानी सिनेमा में महिला की भूमिका व उपयोगिता परिवर्तित हुयी
और एक ऐसा चरण आरंभ हुआ जिसके दौरान सिनेमा में महिला को इस प्रकार चित्रित किया
गया जो समाज में उसकी वास्तविक भूमिका के बहुत निकट थी।
ईरान में बाल फ़िल्में
ईरान में बाल सेनेमा का आरंभ 60 के दशक में हुआ किंतु ईरान
में इस्लामी क्रांति के बाद, बाल सेनेमा के क्षेत्र में
असाधारण रूप से परिवर्तन देखने में आया। बजट, सुविधाओं, सेनेमा हाल तथा बाल सेनेमा के विशेष फिल्मी मेले, फिल्म निर्माण में युवा निर्माताओं की सक्रियता के कारण इस प्रकार की फिल्मों
की निर्माण प्रक्रिया में असाधारण रूप से विकास हुआ और विदेशों में ईरान में बाल
फिल्म उद्योग चर्चा का विषय बन गया। बच्चों की फ़िल्मों के निर्माण के आरंभ काल से
ही फ़िल्म निर्माताओं ने इसके प्रशैक्षिक आयाम पर बल दिया कि जिसका बहुत सकारात्मक
परिणाम सामने आया और यही कारण है कि इस्लामी क्रान्ति के आरंभिक वर्षों से ही
बच्चों प्रशिक्षण के उपकरण के तौर पर बच्चों के लिए फ़िल्म बनाने का विषय सामने
आया है। 80 और 90 के दशक में ईरानी फिल्म निर्माताओं ने बच्चों के लिए आकर्षक
कहानियों पर अधिक ध्यान दिया और एसी एसी फिल्में बनायी कि उन्हें विश्व स्तर पर
सराहा गया। इन वर्षों में बनने वाली असंख्य ईरानी फिल्मों में बाल फिल्मों की
संख्या सब से अधिक रही है और यही विषय, बच्चों के लिए फिल्म बनाने
में ईरानी फिल्मकारों की सफलता का प्रतीक है।
80 के दशक में फीचर फिल्मों के रूप में बच्चों के लिए
फिल्मों का निर्माण अपने चरम पर पहुंचा और ईरानी सेनेमा की अत्याधिक सफल बल्कि
बाक्स आफिस पर सब से अधिक हिट बहुत से सी फिल्में इसी काल में बनी और उनमें से
अधिकांश बाल फिल्म थीं। इसी लिए फज्र विश्व फिल्म मेले के आरंभ के बाद बाल फिल्मों
के लिए विशेष एक अन्य अंतरराष्ट्रीय फिल्म मेले का आरंभ किया गया। पहले बाल फिल्म
मेले का आयोजन वर्ष १९८२ में किया गया और धीरे धीरे बच्चों से विशेष ईरानी फिल्मों
के प्रदर्शन के कारण इस मेले को विश्व ख्याति प्राप्त हो गयी और उसे अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर विश्वस्नीय समझा जाने लगा। आज भी हर वर्ष ईरान के केन्द्र में स्थित
इस्फहान नगर में यह फेस्टिवल आयोजित होता है जिसमें विश्व भर से बच्चों के लिए
बनायी जाने वाली फिल्में दिखायी जाती हैं और इस क्षेत्र में काम करने वाले
निर्माता व निर्देशक इस फिल्मी मेले में भाग लेते हैं|
इस्लामी क्रान्ति के बाद ईरान की समाजिक व राजनिक परिस्थिति
विगत की तुलना में बहुत भिन्न थी और थोपे गए युद्ध के कारण ईरानी समाज में बच्चों
और युवाओं की ऐसी आबादी थी जिसके लिए उचित फ़िल्मों की ज़रूरत थी। इसीलिये उन दिनों बच्चों के फ़िल्म निर्माताओं व सिनेमा जगत ने परिस्थिति पर ध्यान देते हुए
सुनियोजित रूप में बच्चों और युवकों के लिए काल्पनिक फ़िल्में और कार्यक्रम बनाए।
पाताल व आर्ज़ूहाए कूचिक,
दूज़्दे अरूसकहा, शंगूल व मंगूल, लीली हौज़क, राज़े चश्मए सुर्ख़ और दर्रे
शापरकहा ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हें ऐसे ही दृष्टिकोण के साथ बनाया गया। इन फ़िल्मों
मं मौजूद कल्पना रोमांचक घटनाओं को बयान करने तथा बच्चों में उत्साह भरने के लिए
थी। यह फ़िल्में बच्चों के विचारों व कल्पनाओं का साक्षत रूप थीं और उन्हें कल्पनाओं की दुनिया में ले जाने में सक्षम थीं।
इस संदर्भ में ईरानी सिनेमा के प्रसिद्ध समीक्षक अहमद
तालेबी नेजाद कहते हैः फ़ोल्कलोरिक साहित्य में पौराणिक कथाओं, इतिहास यहां तक कि ईरानी युवाओं के समाजिक मामलों से संबंधित ऐसी आकर्षक व
आशाप्रद कहानियां मौजूद हैं कि फ़िल्म निर्माता इन सब चीज़ों से फ़ायदा उठा कर
बच्चों के लिए बेहतर चीज़ पेश कर सकते हैं और उनके मन जीवन में आशा पैदा कर सकते
हैं।
यह भी एक वास्तविकता है कि ईरानी फ़िल्म निर्माता बच्चों की
कल्पना शक्ति को उभारने में बड़ी सीमा तक सफल रहे और क्रान्ति से पहले के वर्षों
में विशेष रूप से बच्चों की फ़िल्मों की तुलना में इस क्षेत्र में उन्होंने बड़े
क़दम उठाए। किन्तु जो लोग एनिमेशन फ़िल्म बनाने में सक्रिय थे उन्होंने अधिक
कामयाबी हासिल की। जैसे कि वजीहुल्लाह फ़र्द मुक़द्दम, अब्दुल्लाह अलीमुराद और फ़रख़न्दे तुराबी एनिमेशन बनाने वाले ईरानी फ़िल्म
निर्माता हैं जो इस्लामी क्रान्ति के बाद बच्चों और युवाओं से विशेष फ़िल्म
निर्माण के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए और उन्होंने बहुत ही अच्छी फ़िल्में बनाईं।
इस क्षेत्र में उन्होंने प्राचीन ईरानी संस्कृति व साहित्य से लाभ उठाया और ईरानी
व इस्लामी कहानियों को बहुत ही अच्छे ढंग से चित्रित किया| इसलिए अस्सी के दशक में
युवा फ़िल्म निर्माताओं ईरानी कहानियों पर आधारित फ़िल्म बनाना शुरु किया और
ख़ुर्शीद व जमशीद, क़ल्बे सीमुर्ग़, तेहरान 1500 और अंतिम दूत जैसी फ़िल्में बनीं। अंत में आपको संक्षेप में केवल इतना बताना चाहेंगे कि ईरानी
सिनेमा में बच्चों के लिए कल्पना शक्ति पर बहुत गंभीरता से बल दिया गया और इस
क्षेत्र में बहुत ही अच्छी फ़िल्में बन चुकी हैं। यह फ़िल्में संख्या की दृष्टि से
कम हैं किन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत अच्छी फ़िल्में हैं।
बच्चों के फिल्मों के सिलसिले में मोहम्मद अली तालेबी और
इब्राहीम फुरोजिश का नाम उल्लेखनीय है|
शहरे मूशहा, चकमे, तीकताक, कीसए बेरिंज, बीद-व-बाद, तू आज़ादी, दीवार, बाद-व-मेह और अलफ़ज़ार, मोहम्मद अली तालेबी की सफल फ़िल्में हैं जिनमें बच्चों से जुड़े विषयों व
समस्याओं को प्रदर्शित किया गया है।
इब्राहीम फुरोज़िश ईरान के प्रसिद्ध, पटकथा लेखक, और निर्देशक हैं जो बाल फिल्मों के कारण विख्यात हैं। वे
चालीस वर्षों से अधिक समय से बाल सेनेमा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वर्ष 1992 में
इब्राहीम फुरोज़िश ने हूशंग मुरादी किरमानी की कहानी के आधार पर खुमरे नामक एक
फिल्म बनायी जो ईरानी सेनेमा के बहुत से समीक्षकों और आलोचनकों की दृष्टि में उनकी
सर्वश्रेष्ठ रचना है।
नख्ल नामक उनकी फिल्म, मुहर्रम की परंपराओं के बारे में।
उन्होंने इसी प्रकार हामून व दरिया, ज़मानी बराए दूस्त दाश्तन, संगे अव्वल, और शीर तू शीर नामक फिल्में भी बनायी हैं। उनकी फिल्मों को
ईरान और विश्व के विभिन्न फिल्में मेलों में पेश किया गया है और अब तक उन्हें तीस से अधिक राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हें।
ईरान का सामाजिक सिनेमा
सिनेमा से संबंधित एक महत्वपूर्ण विषय कला का
सामाजिक आयाम है, विशेषकर समाज और सिनेमा के बीच का परस्पर
संबंध। इस लिए कि सिनेमा लोगों के विचारों को इस तरह से निंयत्रण कर सकता है कि
पर्दे पर दिखाई जाने वाली कहानी समाज में लोगों के जीवन को बदल कर रख सकती है।
उदाहरण स्वरूप, हॉलीवुड में प्रारम्भ के वर्षों से ही सिनेमा
और समाज के पारस्परिक संबंधों की समीक्षा के लिए एक केन्द्र था कि जो समाज पर
सिनेमा के प्रभाव का अध्ययन करता था।
ईरान में शुरू से अब तक सामाजिक सिनेमा
निर्देशकों के विचारों पर आधारित रहा है कि जो अपने व्यक्तिगत अध्ययन के आधार पर
फ़िल्में बनाते रहे हैं। इसी लिए ईरान के सामाजिक सिनेमा ने काफ़ी उतार चढ़ाव देखा
है। जैसा कि हम ने ईरानी सिनेमा के इतिहास में देखा है कि कुछ फ़िल्मों ने समाज के
साथ क़दम आगे बढ़ाया है लेकिन कुछ दूसरी फ़िल्में न केवल समाज से पिछड़ गई हैं
बल्कि उन्होंने समाज की एकमद ग़लत छवि पेश की है। यह वे लोग हैं कि जिन्हें समाज
की सही जानकारी नहीं है और अनुभवों का अभाव उन्हें समाज की सही और सटीक समीक्षा की
अनुमति नहीं देता है। यह फ़िल्म निर्माता मन में केवल समाज का बाहरी रूप रखते हैं
कि जिसमें समाज की वास्तविक आत्मा नहीं होती है, तथा उन्हें ईरान के सामाजिक सिनेमा का सही
प्रतिनिधि क़रार नहीं दिया जा सकता।
जैसा कि हम उल्लेख कर चुके हैं कि इस्लामी
क्रांति की सफलता के प्रारम्भिक सालों में, सिनेमा राजनीतिक मुद्दों एवं समाज की
उत्साहपूर्ण परिस्थितियों से प्रभावित था और परिणाम स्वरूप अधिकांश फ़िल्में ईरानी
क्रांति और कुछ अन्य क्रांतियों से प्रेरित नारों के आधार पर समाज का विवरण पेश
करती थीं। लेकिन सद्दाम के साथ युद्ध के शुरू होने से यह प्रक्रिया बंद हो गई और
अन्य संचार माध्यमों की भांति फ़िल्म निर्माताओं को इस बात के लिए प्रेरित किया कि
वे अपने कैमरों को सद्दाम के अतिक्रमण और उसके द्वारा थोपे गए युद्ध की वास्तविकता
को दर्ज करने के लिए प्रयोग करें। उन्होंने इस काम को बखूबी निभाया|
1988 में युद्ध
समाप्त होने के बाद, ईरानी सिनेमा में रोमांटिक तड़के के साथ
मेलोड्रामा अर्थात संसनीख़ेज़ सामाजिक फ़िल्मों के निर्माण का रुझान बढ़ा और उसी
के साथ साथ कॉमेडी फ़िल्मों का भी
उल्लेखनीय विकास हुआ। सामाजिक सिनेमा में फ़िल्मी सितारों का प्रचलन बढ़ा और समय
के साथ साथ उसमें युवा सितारों को जगह मिली, इसी कारण दर्शकों की संख्या में महत्वपूर्ण
वृद्धि हुई। उदाहरण स्वरूप बहरूज़ अफ़ख़मी की फ़िल्म अरूस की ओर संकेत किया जा सकता
है कि जिसके कलाकार क्रांति के बाद पहले सितारों के रूप में प्रसिद्ध हुए। उसके
बाद ईरानी सामाजिक सिनेमा ने नए दृष्टिकोण के साथ सड़क वाली फ़िल्मों के नाम से
प्रसिद्ध फ़िल्मों की ओर ध्यान दिया तथा सामाजिक घटनाक्रम एवं पिछड़े वर्ग की
समस्याओं एवं कठिनाईयों पर आधारित फ़िल्मों को वरीयता दी। ‘रख़शान बनी एतमाद’,
‘रसूल मुल्ला क़ुलीपूर’ और उसके बाद ‘असग़र
फ़रहादी’ जैसे फ़िल्म निर्माताओं ने ईरान के सामाजिक सिनेमा के विकास में
महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस लिए कि इन फ़िल्म निर्माताओं की रचनाओं में ग़रीबी,
नशा और महिलाओं की समस्याओं जैसे विषय शामिल
थे|
हालियों वर्षों में ईरान के सामाजिक सिनेमा ने
कठिन परिस्थितियों से निकल कर देश एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय स्थान
प्राप्त किया है तथा दर्शकों को आकर्षित करने में भी महत्वपूर्ण सफ़लता प्राप्त की
है। आज के सामाजिक फ़िल्म निर्माता, ईरानी जनता की समस्याओं पर ध्यान देने के अलावा
ऐसे विषयों को उठाते हैं कि जो विश्व के अन्य भागों के लोगों की भी समस्या हो सकते
हैं, यही वजह है कि ईरानी की सामाजिक फ़िल्में विश्व
के दूसरे देशों में भी लोकप्रिय हैं और उनका स्वागत किया जाता है। उसका स्पष्ट
उदाहरण ‘जुदाई नादिर अज़ सीमीन’ फ़िल्म है। पिछले साल इस फ़िल्म का अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर स्वागत हुआ और इसने प्रमुख पुरस्कार प्राप्त किए और विश्व भर में बड़ी
संख्या में दर्शकों को आकर्षित किया। इस फ़िल्म के निर्देशक ‘असग़र फ़रहादी’ ईरान
के उन नई नस्ल के फ़िल्म निर्माताओं में से हैं कि जो सामाजिक मुद्दों को
आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। लगभग जिन फ़िल्मों और धारावाहिकों का उन्होंने
निर्माण किया है वे उनके सामाजिक मुद्दों में गहरे अध्ययन एवं खोज का परिणाम हैं
कि जिन्हें बहुत ही समझदारी से पेश किया गया है। इसी कारण,
असग़र फ़रहादी न केवल ईरान में बल्कि विश्व
सिनेमा में एक सामाजिक फ़िल्म निर्माता के रूप में प्रसिद्ध हुए।
अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में ईरानी सिनेमा
लगभग 55 वर्ष पूर्व ईरान की पहली फ़िल्म ने
अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में भाग लिया था। सन 1958 के बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवेल में जिस प्रथम
ईरानी फ़िल्म ने भाग लिया उसका नाम था, “शब नशीनी दर जहन्नम”। उसके बाद 80 के दशक के आरंभ में ईरान की कुछ डाक्यूमेंट्री
फ़िल्में, अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में भाग लेने
में सफल रहीं।
इसी दशक के अंत में अधिक संख्या में ईरानी
फ़िल्मों ने अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में भाग लेकर इसके आयोजकों और
आलोचकों के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट किया। यह फ़िल्में अपनी विशेष शैली के कारण आलोचनीय
फ़िल्मों के नाम से मशहूर हुईं। इस प्रकार की फ़िल्में, न केवल यह कि अपने बनाने वालों की अच्छी छवि
बना रही थीं बल्कि उस शासन के लिए भी सकारात्मक समझी जाती थीं जो कठोर सेंसर शिप
के लिए मशहूर था।
एक ईरानी लेखक और निर्माता “दारयूश मेहरजूई” ने इस्लामी क्रांति के पूर्व के वर्षों में
फ़िल्म समारोहों में उपस्थिति का कीर्तिमान स्थापित किया था।
उस काल में “गाव” और “पुस्तची” जैसी उनकी फ़िल्मों ने अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल्स
में भाग लिया। उनकी इन
फ़िल्मों की बहुत सराहना की गई। ‘दारयूश मेहरजूई’ की फ़िल्मों ने इस्लामी क्रांति से पूर्व
शिकागो, लंदन, वेनिस, पेरिस, मास्को, बर्लिन और कान्स फ़िल्म समारोहों में भाग लेकर
पुरस्कार अर्जित किये।
सन 1971 के वेनिस फ़िल्म समारोह में एक आलोचक और
टीकाकार सरजूफ्रोसाली ने नैटसिवेन
पत्रिका में लिखा था कि ईरानी निर्माता “दारयूश मेहरजूई” की फ़िल्म “गाव” देखने के बाद मुझे इस फ़िल्म निर्माता के ज्ञान
और उसकी गहरी जानकारी ने बहुत प्रभावित किया। उन्होंने लिखा कि फ़िल्म को देखकर मुझे फ़िल्म
सिनेमा के महारथियों जैसे जान बोनोएल और अन्य लोगों की याद आई।
अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में ईरानी
फ़िल्मों की भागीदारी का मुख्य कारण संभवतः यह रहा है कि दर्शकों को अज्ञात भूमि
के बारे में पता चले। वे लोग चाहते
थे कि फ़िल्मों के माध्यम से ईरान की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति से अवगत हुआ जाए।
वे लोग चाहते थे कि उन्हें उस भूमि के बारे में
अधिक से अधिक जानकारी एकत्रित हो सके जो उनके लिए अभी तक रहस्यमई रही है और इसके
बारे में वे जानने के इच्छुक हैं|
ईरान की फ़िल्मों ने अबतक 2500 अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जित किये हैं।
सर्वेक्षणों से ज्ञात होता है कि ईरान में
इस्लामी क्रांति की सफलता से पूर्व फ़िल्म निर्माताओं ने 152
पुरस्कार हासिल किये थे।
बाक़ी पुरस्कारों को इस्लामी क्रांति के बाद
में बनने वाली फ़िल्मों ने प्राप्त किया।
इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद कुछ समय के लिए ईरान की फ़िल्में,
अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल में भाग नहीं
ले सकीं और एक समय तक लंबा अंतराल बना रहा किंतु 1980 के दशक के बाद से इन फ़िल्मों ने फिल्म
समारोहों में अपनी उपस्थिति दर्जा करानी आरंभ कर दी।
अब स्थिति यह हो चुकी है कि शायद ही कोई एसा
अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल आयोजित हो जिसमें ईरान की फ़िल्में मौजूद न हों।
यहाँ पर सबसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों द्वारा ग्रांड प्राइज प्राप्त की हुई
कुछ ईरानियन फिल्मों की सूची दी जा रही है|
Cannes
Venice
Berlinale
The Annual Academy Awards (Oscar)
Golden Globe Awards
ईरानियन
इन्टरनेशनल फिल्म समारोह
(Iranian
International film festival)
ईरानियन सिनेमा के समारोहों का इतिहास बहुत पुराना है|सबसे
पहले ‘Tehran international film festival’ नामी फिल्म समारोह 1973 में आयोजित
हुआ| हालाँकि यह फेस्टिवल कभी भी CANNES और VENICE के बराबर का नहीं हो सका फिर भी
यह एक सम्मानित समारोह के तौर पर खुद को मनवाने में कामयाब रहा| कई जाने माने
फिल्म निर्माताओं ने अपने फिल्म के साथ इस में भाग लिया| इनमें Francesco
Rosi, Grigori Kozintsev, Alain Tanner, Pietro Germi, Nikita
Mikhalkov, Krzysztof Zanussi, Martin Ritt आदि ऐसे निर्माता व निर्देशक हैं
जिन्होंने इस फेस्टिवल का अवार्ड भी अपने नाम किया है|
*FAJR फिल्म फेस्टिवल
फज्रफिल्म फेस्टिवल की शुरुआत 1983 में हुआ । यह तेहरान अंतरराष्ट्रीय
फिल्म महोत्सव के रूप में एक शक्तिशाली पृष्ठभूमि थी| Fajr फिल्म महोत्सव अभी तक शीर्ष फिल्म समारोहों
के बीच में वर्गीकृत नहीं है, यह नीतियों को बनाने और ईरानी सिनेमा
के भविष्य के लिए उदाहरण स्थापित करने में सफल रहा है। इसका सबसे टॉप प्राइज
Crystal Simorgh है|
*NAM Fimmakers’Meeting
*Isfahan international festival of Films For Children and
Young Adults
यह समारोह 1985 से आयोजित हो रहा है| पहले यह फज्र फिल्म
फेस्टिवल का एक हिस्सा था| इसका टॉप प्राइज Golden Butterfly है|
*Iran Cinema Celebration Awards
12 सितम्बर को national day of iranian cinema के तौर पर यह
मनाया जाता है|
*कुछ
महत्वपूर्ण ईरानियन फ़िल्में*
1. The House is Black
(Forough Farrokhzad, 1963)
2. The Brick and The Mirror [aka Brick and Mirror] (Ebrahim
Golestan, 1965)
3. The Cow (Daryush Mehrjui, 1969)
4. Still Life (Sohrab
Shahid-Saless, 1974)
5. The Runner (Amir Naderi, 1985)
6. The Cyclist (Moshen Makhmalbaf,
1987)
7. Close Up (Abbas
Kiarostami, 1990)
8. A Moment of Innocence [aka Bread and Flower Pot] (Moshen
Makhmalbaf, 1996)
9. Taste of
Cherry (Abbas Kiarostami, 1997)
10. The Apple (Samira Makhmalbaf, 1998)
11. The Color of Paradise (Majid Majidi, 1999)
12. The Day I Became a Woman (Marzieh Meshkini, 2000)
13. Ten (Abbas Kiarostami, 2002)
14. Turtles Can Fly (Bahman Gobadi, 2004)
15. A Separation (Asghar Farhadi, 2011)
संदर्भ
:
1. BBC Persian.com
2. Offscreen.com
3. Yahoo! movies : movie news
5. Mehr news 28 September 2011
10. Wikipedia