राजस्थानी
लोक संस्कृति
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लोक
संस्कृति की समस्त विद्याओं में लोक संगीत, नाटकों, ख्यालों
तथा नृत्यों एवं नाट्यों का अपना ही महत्वपूर्ण स्थान है। इन विद्याओं में लोक
संस्कृति,
जीवन और लोक मनोरंजन का अपना ही अनुपम रुप निहारने को
मिलता है। इन विद्याओं का नहीं कोई जन्मदाता है और ना कोई शास्र और प्रणेता रहा है। इनके अन्तर्गत जो नाच, गीत, नाट्य, संगीत इत्यादि हैं उनके रचयिता भी अज्ञात हैं। सामुदायिक
वातावरण और परम्परागत अभ्यास ने इन कलाओं को जीवित रखा है। मौखिक स्मरण और लौकिक रुढियों में ढ़ली यह कला आज
भी जीवित हैं। युग - युगान्तर से जन्मी - पनपी यह सांस्कृतिक विद्या राजस्थान
संस्कृति का अभिन्न अंग है जो राजस्थान संस्कृति की प्राण बनी हुई है। इन
सांस्कृतिक विद्याओं को लोक शब्द से जोड़ा गया है, इसलिए नहीं कि इनका सम्बन्ध केवल ग्रामीण जीवन या आदिवासी
जीवन से है। चाहे गांव हो या शहर, सभी स्थानों में लोक - गीतों, लोक - नृत्यों, ख्यालों व नाट्यों का प्रमुख स्थान है। पर्वों
एवं धार्मिक तथा सामाजिक उत्सवों और त्यौहारों में में
ऐसे अनेक गीत तथा नृत्य और मनोरंजन का साधन हैं जो ग्रामीण जीवन और कस्बों और
नगरों में समान रुप से मिलते हैं। सामाजिक जीवन और संस्कृति के प्रतीकों के बीच
कोई अन्तर नहीं है और न ही इनके मध्य कोई सीमा रेखा खींची जा सकती है। इनकी
अभिव्यक्ति मनोवैज्ञानिक,
बौद्धिक तथा धार्मिक प्रवृत्तियों में सर्वत्र मिलती है
जिनका रसास्वादन सम्पूर्ण जनता करती है। लोक का व्यक्त रुप मानव है, एतएव लोक संस्कृति व्यावहारिक जीवन का परिष्कृत रुप है।
लोक
संस्कृति के तीन मुख्य स्तम्भ है :
१)लोकनाट्य
२)लोकगीत ३) लोकनृत्य
इन तीन
स्तम्भों के अन्तर्गत लोक संस्कृति का क्रमवार विशलेषण आगे के पृष्ठों में किया
जा रहा है-
लोक नाट्य
की परम्परा बड़ी प्राचीन है जिसको हम स्वांग, लीला और ख्याल के रुप में प्रचलित पाते हैं। लोक - नाट्य भरतपुर और जयपुर दोनों में बड़े लोकप्रिय हैं।
रामायण और कृष्ण लीलाओं पर आधारित कथाओं के साथ लोक जीवन को इस तरह प्रदर्शित
किया जाता है कि राम व सीता अथवा कृष्ण और राधा एक साधारण व्यक्ति के रुप में
आते हैं और उनकी पोशाकें भी लोक लोक परिपाटी के अनुकूल होती है। इन प्रदर्शनों
में धर्म,
नैतिकता, मनोरंजन
और व्यावहारिकता को इस तरह संयोजा जाता है कि लोक जीवन का सच्चा स्वरुप प्रकट हो
जाता है। आज इन लीलाओं का मंचन कमतर हो चला है, इन लीलाओं के प्रति पात्र और दर्शक उदासीन हैं, फिर भी दशहरे के अवसर पर यत्र - तत्र इनका आयोजन होता
रहता है। भरतपुर,
अलवर, करौली
आदि भागों में रासलीला का प्रचलन अद्यावधि भी देखा जाता है। इन खेलों की भाषा
स्थानीय रहती है और कई स्थलों को संवाद अथवा गीतों द्वारा प्रस्तुत किया जाता
है। बीच - बीच में हास्य -संवाद मनोरंजक होते हैं।
बीकानेर और
जैसलमेर में लोक नाट्यों में"रम्मत"सामुदायिक स्वरुप को निभा रही है।
रम्मत में समभागी सभी जाति वर्ग के लोग होते हैं और सभी समुदाय के लोग इसमें रस
लेते हैं। भाषा और क्षेत्रीय रंगत के कारण"रम्मत"की लोकप्रियता अन्य
क्षेत्रों में नहीं है। प्रारम्भ से ही समस्त पात्र रंगमंच पर बैठे मिलते हैं और
अपना - अपना करतब दिखाकर स्थान ग्रहण करते हैं। इसमें टेरियों और गायकों की
प्रमुखता रहती है।
ख्याल
सम्पूर्ण राजस्थान में अपनी क्षेत्रीय रंगत के लिए बड़े लोकप्रिय है। इनमें अनेक
वीरों की कहानियाँ इस तरह समाविष्ट हैं कि वे वीर रस प्रधान होते हुए भी अन्य
रसों को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते। जब इन ख्यालों को व्यावसायिक होने का
अवसर मिला तो विषय एवं रंगत की विशेषता ने इन्हें राजस्थान से बाहर भी लोकप्रिय
बना दिया। ये ख्याल कभी कभी धार्मिक कथानकों को गायन, वादन और संवाद से सम्मलित कर इनकी उपयोगिता को बढ़ा देते
हैं। धर्म और वीर रस प्रधान ख्यालों में अखरुपता तो दिखाई नहीं देती , परन्तु ध्येय की दृष्टि से अपने - अपने क्षेत्र में उनमें
विविधता आ जाती है। फिर भी इनकी लोकप्रियता बनी रहती है। इन ख्यालों को
क्षेत्रीय भाषाओं और स्थानीय परिवेश में रखे जाने से यह नहीं समझना चाहिए कि
इनकी सांस्कृतिक इकाई में कोई व्यवधान है। वे ख्याल परम्परा के अंग हैं। अमर
सिंह रो ख्याल ,
रुठी रानी रो ख्याल , पद्मिनी रो ख्याल , पार्वती रो ख्याल , आदि भिन्न भिन्न रंगत प्रस्तुत करने पर भी सांस्कृतिक
आधार में समान है।
राजस्थान
में भवाई नाट्य अपने ढ़ंग का अनूठा नाट्य है। इसमें पात्र व्यंगवक्ता होते हैं।
तात्कालिक सवाल - जवाब तथा सामाजिक समस्याओं पर चोट करना प्रमुख कार्य है। इनके
खेल परम्परा पर आधारित रहते हैं परन्तु पात्र स्थानीय एवं सामयिक समस्याओं को
लेकर व्यंगों का निरुपण कर दर्शकों को दंग कर देते हैं। इनका कोई रंगमंच नहीं
होता,
परन्तु कुशाग्र संवाद से इनके प्रदर्शन में समा बंध जाता
है। भवाइयों को नाटकों के मूल लेख परिवर्तित होते रहते हैं। इनमें गायकी के गायन
और भवाइयों की हँसी मजाक और संवाद तथा नृत्य बड़े रोचक होते हैं। इनमें कथानक तो
गौण हो जाते हैं पर गायन,
हास्य और नृत्य पूरे तौर पर छा जाते हैं।
वादन, संवाद, प्रस्तुतिकरण
और लोक संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की ' गवरी ' निराली
है। इसमें कई तरह नृत्य नाटिकायें होती हैं। गवरी का उद्भव शिव
भस्मासुर की कथा से तथा किंवदन्तियों पर आधारित है। नृत्य नाटिकायें पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं और लोकगाथाओं और लोकजीवन की विभिन्न झाँकियाँ
पर आधारित होती है। शिव भस्मासुर कथा अनुसार भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिवजी
को प्रसन्न करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसने पार्वती को पाने के लिए शिव पर
ही उसका प्रयोग करना चाहा। अन्त में विष्णु भगवान ने अपनी लीला से शिव को बचाया
और भस्मासुर का हाथ उसी के सिर पर रखवा कर उसका अन्त किया। इसी संदर्भ में शिवजी
ने भीलों को साथ नृत्य किया जो आगे चलकर गवरी के रुप में प्रचलित हुए। गवरी का
आयोजन रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से शुरु होता है। खेड़ा देवी से भोपा भादवा कृष्णा एकम् को आज्ञा लेता है। इसके बाद पात्रों के
कपड़े बनते हैं। पात्र मंदिरों में "धोक"देते हैं और नव - लाख देवी -
देवता,
चौसठ योगिनी और बावन भैंरु को स्मरण करते हैं। दो चार
गाँवों के समझौते के बाद गवरी आरम्भ होती है जिसके पात्र व्रत और संयम रख कर
इसको स्थान - स्थान पर जाकर खेलते हैं। गवरी का मुख्य पात्र बुढिया भस्मासुर का
जप होता है और अन्य मुख्य पात्र"राया"होती है जो स्री वेष में पार्वती
और विष्णु की प्रतीक होती है। भामट्या नाम का पात्र लोकभाषा में कविता बोलता है और खट्कइया उसको दोहरातें हैं और बीच - बीच में जोकर का
काम करता है। बुढिया भी खट्कइये के समय - समय पर संवाद में पूरक बनता है। शेष
सभी पात्र '
खेला ' कहलाते
हैं। गवरी में मुख्य पात्र होते हैं। पात्रों के खेलों में गणपति, भूमरिया, भेवावड़, मीणा, कान
- गूजरी,
जोगी, लाखा
बण्जारा नटड़ी तथा माता और शेर के खेल होते हैं। कान्ह - गूजरी के खेल में मजीरा
और चीमरे बजते हैं और अन्य खेलों में मादल और थाली बजाते हैं। खेल के पात्रों
में जादू,
टोना, और
तान्त्रिक प्रयोग किए जाते हैं, जिन्हें ' झाड़ा फूँका ' के माध्यम से ठीक किया जाता है। गवरी सवा महीने तक खेली
जाती है। इस अवधि में राई , बुढिया
और भोपा नंगे पाँव रहते हैं, जमीन
पर सोते हैं और स्नान नहीं करते। कुछ क्षेत्रों में राई, बुढिया दूध पीकर ही रहते हैं; शराब माँस और हरी सब्जी का इस अरसे में निषेध रहता है।
गवरी का व्यय,
प्रमुख गाँव जहाँ से गवरी आरम्भ होती है, वहन करता है और जिन गाँवों में गवरी खेली जाती है, खाने - पीने का व्यय उसी गाँव केलोग करते हैं। आदिवासियों
की गवरी गाँव के चौराहे से प्रारम्भ होती है और शकुन को लेकर दिशा निश्चित कर
आगे गाँवों के लिए प्रस्थान करती है। गवरी समाप्ति पर दो दिन पहले ज्वार बोये जाते हैं और एक दिन पहले कुम्हार के यहाँ से
मिट्टीका हाथी लाया जाता है। हाथी के आने के बाद भोपे का भाव बन्द हो जाता है।
मय,
जावरा हाथी के गवरी विसर्जन प्रक्रिया होती है जिसे किसी
जलाशय में विसर्जित करते हैं। कहीं कहीं गाँव के बाहर गाड़ दिया जाता है। गवरी
समाप्ति के छठे दिन नवरात्रि का आरम्भ हो जाता है। यह पर्व आदिवासी जाति पर
पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। इसकी लोकप्रियता सभी जातियों के
लोगों की इसमें रुचि लेने से सुस्पष्ट है। उनके खेल, कथानक, वीर
गाथाओं से जुड़ी हुई यह नृत्य नाटिका गवरी के आरम्भ और समाप्ति में पूर्ण रुप से
स्वीकर की जाती है। ध्वाजारोहण और ध्वज का आद्योपान्त रखना दैविक शक्ति की
मान्यता पर बल देना है। यह ध्वज एक प्रकार से अनुयायियों, दर्शकों और पात्रों के बीच दैवी शक्ति की प्रधानता
स्वीकार करने के माध्यम का काम करता है। भोपे, पात्र और दर्शक सभी खेल के हर क्षण देवी की प्रत्यक्षता
अनुभव करते हैं। युद्ध विजय और पराजयों तथा नृत्यों के प्रसंग देवी के आशीर्वाद
से आरम्भ और समाप्त होते हैं। ऐसे लगता है कि गवरी द्वारा सम्पूर्ण वातावरण
आस्था से ओत - प्रोत हो जाता है। इसके द्वारा नाटकीय अभिव्यक्तियाँ एक ऐसी
सामाजिक स्वतन्त्रता की प्रतीक बन जाती है कि उनमें जात - पात, रंग, वर्ण
भेद का कोई स्थान नहीं रहता। देव देवताओं की आराधना के प्रसंगों में गवरी के
पात्र पूर्ण स्वतन्त्रता से कई र - रिवाजों तथा गाँवों के अधिकारियों की आलोचना
एवं समर्थन करते हैं जिससे दर्शकों में एक सामाजिक चेतना अनायास प्रवेश कर जाती
है और स्वतन्त्र जीवन का सूत्र बन जाती है।
आदिवासी
क्षेत्रों में होली के अवसर पर लगभग पूरे मास गेर नृत्य का चलन बड़े उल्लासमय और स्फूर्तिदायक रुप में होता है। सामूहिक रुप में विशेषकर
पुरुष लड़कियों के डंके के साथ नाचते हैं जिसमें प्रत्येक अंग का भाग तोड़ और मरोड़ के साथ ताल से
नाचता है और बीच में ढोल का ठमका बजाता रहता है। लगभग आधी रात तक यह क्रम चलता है, कभी कभी स्री पुरुष के जोड़े एक कतार में दो दलों के रुप में पास आते हैं और पीछे हटते
हैं। इस नृत्य में भीली संस्कृति की प्रधानता रही है। इसके साथ जो संगीत की
लड़ियाँ गाई जाती हैं,
वे किसी वीरोचित गाथा का प्रेमात्यान के खण्ड होते हैं।
फसल भी खुशहाली की द्योतक लयों को भी गा - गाकर नृत्य के साथ जोड़ा जाता है।
वर्तमान में इस नृत्य की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि भीलों के अतिरिक्त अन्य
जातियाँ भी इस अवसर पर"गेर"बनाकर नाचते रहते हैं और इसके साथ गाते भी
हैं। कृषक समाज में भी इसका प्रचलन है जो फसल काटने के पश्चात् और फसल बोकर गेर
करते हैं।
पुरुष
प्रधान नृत्यों की भांति राजस्थान में महिलाओं द्वारा भी कुछ नृत्यों का आयोजन
होता है जिसमें एकल, युगल
और सामुहिक नृत्य मुख्य हैं।"ऊब नाच"में महिला अकेली नाचती हैं जिसमें
हाथ,
पैर और
कमर का मुड़ाव बड़ा रोचक होता है। सिर पर घड़ा या घड़े रखकर नाचना"मटकी
नाच"कहलाता है जो कई करतबों से जुड़ा रहता है। सामूहिक रुप में"चपटी
नाच","ताल नाच", "डांडिया नाच"भी बड़े रोचक होते हैं। विवाह तथा
गणगौरके अवसर पर या तीज के त्यौहार रहता है। श्रावण मास में इस प्रकार के नाचों के छटा बड़ी अद्वितीय होती है।
महिला नृत्य
में गरबा भक्तिपूर्ण नृत्य कला का अच्छा उदाहरण है। यह नृत्य शक्ति की आराधना का
दिव्य रुप है जिसे गुजरात के प्रत्येक शहर और गाँव में नवरात्रि के अवसर पर देखा
जाता है। गुजरात से जुड़े डूँगरपुर और बाँसवाड़ा में भी इसका प्रचलन व्यापक रुप से
समाहित है। इसके साथ साथ द्रविड़ संस्कृति के भ मेवाड़ा, नागर, आदित्य
आदि जातियों में भी"गरबा"के अवसर को बड़े धूमधाम से मनाती है। गरबा का
स्वरुप रास,
गरबा, डाँडिया, गवरी आदि में अभिव्यक्त होता है जो हस्तला के प्रकार हैं।
ऐसी मान्यता है कि प्रारम्भ में इस कला का उपयोग आद्यशक्ति की आराधना से
प्रारम्भ हुआ। इसकी आराधना में मिट्टी के घड़ों में छिद्र कर और उसमें ज्योति प्रज्वलित
कर उसे सर पर रखकर स्रियाँ गर्भगृह के आसपास प्रदक्षिणा करती थी। धीरे - धीरे यह
विधि गोलाकार नृत्य में परिणत हो गई। मुख्य रुप से गरबे के तीन स्वरुप देखे जाते
हैं पहले में शक्ति की आराधना एवं अर्चना है। दूलरे में कृष्ण - राधा, गोप - गोपियों का प्रणय चित्रण हैं और रास नामक नृत्य की
प्रस्तुति है। तीसरे स्वरुप के अन्तर्गत लोक जीवन का सौन्दर्य पक्ष प्रस्तुत
किया जाता है।
इसमें
पनिहारी,
नव - वधू की भावुकता और गृह कार्य में रत स्रियों का
चित्रण रहता है। आराधना - दीपक, कलश, नृत्य ताली, चुटकी से नाच होता है और घरों में अखण्ड ज्योति दुर्गा, अम्बिका माता की आराधना में लगाई जाती है। नवरात्रि की
समाप्ति के अवसर पर इसका विसर्जन होता है। गरवा लेते समय अनेक लयों में गीत गाए
जाते हैं जो अम्बा की भक्ति के पोषक होते हैं या जिनमें नारी समस्त भावनाओं को
वाद - माधुर्य और अर्थ - सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत किया जाता है। गरबा नृत्य लोक
जीवन और दैवी शक्ति की अप्रतिमता प्रस्तुत करता है। इसमें मानव संस्कृति और
पारलौकिक भावनाओं का अनुपम सम्मिश्रण है। गरबा ने लोक जीवन को धर्म और संस्कृति के प्रति
आस्थावान बनाने तथा परम्परागत भक्ति तथा रुढियों को स्थायित्व प्रदान करने में
बड़ा योग दिया है। गुजरात और राजस्थान की संस्कृति के समन्वय का सुन्दर रुप
हमें"गरबा"नृत्य में देखने को मिलता है। गरबा में गाये जानेवाले पदों
में सौभाग्य,
कल्याण, प्रेम
और उल्लास प्रतिध्वनित होते हैं। हास्य रस का समावेश देवर, भौजाई, ननद, सौत, सास
आदि को लेकर गरबा के गीतों में किया जाता है। राधाकृष्ण के प्रेम अथवा मीरा की
भक्ति से सम्बन्धित गीतों की लय गरबा में रहती है। इन पदों में कितना सौन्दर्य
और आसक्ति है ----
"नागरनंदजी ना लाल
रास रमता मारी नथनी खोवाणी" "हूँ तो जोगण बनी हूँ म्हारा बालमजी, बालमजी प्रेम आलमनी" "उगे छे - प्रभात आज धीमे धीमे उगे छे उषानु राज्य धीमे धीमे"
राजस्थानी
लोकगीत संगीत के क्षेत्र में अनमोल हैं। इनको किसी ने न लिखा है और न ही इनके रचयिता का पता है। ये मौखिक परम्परा और अनुश्रूती पर
आधारित रहे हैं। मानस पटल की उपज
लोने के नाते इनमें सांस्कृतिक और कलात्मक प्रवृत्तियाँ प्रविष्ट हो जाती हैं।
इनमें मानव समाज की विशिद्ध मनोवृत्तियाँ और भावनाएँ समयोचित प्रसंगों पर हर्ष -
विषाद,
प्रेम ईर्ष्या, उल्लास - भक्ति आदि प्रकट होती हैं। मौखिक होने से एकल और
बहुधा सामुहिक रुप से इन्हें गाया
जाता है। इनके द्वारा बुद्धि, सौन्दर्य, सुख, भक्ति
तथा आनन्द का अनुभव होता है। विवाह, जन्म या अन्य त्यौहारों पर पति - पत्नि, ननद - भौजाई, सती, मातृ
- भक्ति,
शौर्य, रीति
- रिवाज,
शक्ति, आराधना, ज्ञान, दर्शन, नीति आदि विषयों को प्राचीन और वर्तमानकालीन आदर्शों और मानव धर्म के सिद्धान्तों के रुप
में इनमें अभिव्यक्ति होती हैं। गीतों में उपदेश और त्याग का इतना वर्णन रहता है
कि गाने वाले और सुनने वाले में एक नई प्रेरणा का भाव भर जाता है। विवाह और
पुत्र जन्म के गीतों में उल्लास है तो पुत्री की विदाई में लौकिक दुख का
प्राबल्य है। इसी तरह रात्रि - जागरण के गीतों में भक्ति रस समाया मिलता है। तीज
के त्यौहार के गीतों में प्राकृतिक छटा और पति - पत्नि संयोग या वियोग तथा
सहेलियों के सहवास के भावों का अच्छा संयोग दिखाई देता है। जन - जीवन में
व्याप्त हर्ष,
कामनाओं और अभिलाषाओं का यदि अविरल स्रोत प्राप्त करना है
तो वह लोकगीतों में मिलेगा। लोकगीतों का माध्यम जितनी स्रियाँ हैं उतने पुरुष
नहीं। जितना प्रेम,
स्नेह, विषाद, पीड़न, और
उल्लास का चित्रण महिलाएँ कर सकती हैं अन्य व्यक्ति नहीं कर सकते। उनके कण्ठ
स्वर निकलते हैं व वास्तविकता के निकट में सहजता से पहुँचते हैं। गीत के बोल
बालिका अवस्था में यौवन या प्रौढ़ अवस्था तक वेद वाक्य बन जाते हैं जिससे
महिलाओं में एक अनमोल आस्था उत्पन्न होती है। वेदों की भाँति लोकगीत भी हमारी
संस्कृति के अटूट भण्डार बन जाते हैं और समाज के भव्य भवन को स्थायित्व प्रदान
करते हैं।
गणगौर के
अवसर पर गाये जाने वाले अनेक गीतों में भक्ति और प्रेम टपकता है जो साहित्य की
दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है :
"खेलग दौ गिणगौर भमवर, म्हाँनै पूजण दौ गिणगौर
औ जी म्हारी सैल्याँ जौवे बार, भँवर म्हानै खैलण दौ गिणगौर"
इसी प्रकार
यौवन की पिपासा के साधनों के जुटाने में स्री हृदय कितनी शान्ति का अनुभव करती
है जो इस गीत में प्रकट है :
"चुग-टुग कलियाँ सेज बिछाई
पौढणरी रुत आसी"
मारुजी को सम्बोधित कर सौभाग्याकांक्षा का रुप भी इन
पंक्तियों द्वारा पत्नी व्यक्त करती है :
"उदयपुर से तो सायबा पीलो मंगओजी
तो नानीसी बंधण बंधाओ गाढा मारुजी"
विवाह या बनौले के अवसर रक गाये जाने वाले गीतों में
राजस्थान की गर्मी और सौन्दर्य का
अच्छा वर्णन है :
"धूप तपे धरती तपे रे
गोरो गोरो मुखड़ों कुम्हलाय"
तीज सम्बन्धित गीतों में कितनी लालसा है :
"तीज सुण्याँ घर आव
मँझल आपरो नौकरी महाराज जीत सुण्याँ घर आव"
होली सम्बन्धी गीत में कितना उल्लास भरा है :
"म्हाँरी घूमर छे नखराली ए माँ
घूमर रमवा म्हे जास्याँ "
राजस्थान
में लोक संगीत किसी न किसी लोकवाद्य से जुड़ा हुआ है। पाबुजी की कथा के साथ रावण
हत्या या गूजरी,
बगड़ाव के साथ गला लगे, अर्जुननंग (बाँसवाड़ा, डूँगरपुर) के साथ केन्द्र और अनेक बड़ी गेय कथाओं के साथ
तंदूरा व मजीरा जुड़ा हुआ है। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अनेक अवदानात्मक
नायकों के साथ वाद्य विशिष्ट रुप से प्रयुक्त हो रहे हैं। इसी प्रकार देवीयों के
साथ भी वाद्य हैं। कैलादेवी के मेले में नगाड़ें, तासे और तीनतारा है जो सारंगी की तरह बजाया जाता है। उसके
तीन मुख्य तार घोड़ों की पूँछ के बाल के गुँथाव से लगाए जाते हैं। जोगिया सारंगी
का प्रसार पूरे अलवर,
भरतपुर जिले में हैं --साथ ही झूँनझूँनू, सीकर से लेकर नागौर तक का मुख्य लोक वाद्य है। जोगियों के
साथ साथ कोली,
माली व गू भी एक प्रकार का पूंगी वाद्य बजाते हैं। इस
क्षेत्र में इसे पूंगी कहा जाता है। सामान्यत: पूंगी नामक वाद्य का नाम सपेरों
से जुड़ा हुआ है। नलीवाले तूँबे से यह वाद्य बनता है। किन्तु इस क्षेत्र में
पूंगी का अर्थ मशक व बंग पाइप है। यह बकरी की खाल से बनी एक बड़ी मशक है जिसमें
एक ओर वाल्व लगे हुए मुख से फूँक भरी जाती है जिससे रीड लगी हुई दो बाँसुरियों
से संगीत - ध्वनी निकलती है। सांगीतिक रुप में पूँग का प्रयोग सीमित है। इसमें केवल
पाँच छेद होते हैं जो पूरे सप्तक का काम नहीं करते। इस प्रकार के पाँच छेद वाले
वाद्य लक्ष्मणगढ़ के मीणा क्षेत्र से लगे आदिवासी जन समुदाय में प्रचलित है जो
खेराड़ और मेवाड़ तक चले जाते हैं। भीलवाड़ा के निकट भी भीलों द्वारा देशी मशक बनाई
व बजाई जाती है। लक्ष्मणगढ़ एवं उसके आसपास के क्षेत्र में मेव व मीणों की बड़ी
बस्तियाँ हैं। इन मेवों में मिरासी है जो गायक हैं, ये चिकारा, जोगिया, सारंगी, शास्रीय सारंगी जैसे यन्त्र वाद्यों को बजाते हैं। भपंग
एक प्रकार का लय वाद्य है तो तूँबे पर चमड़ा मढ़ कर एक तार के तनाव से बजता है।
मिरासियों में भपंगवादन अदभुत् जटिल लयों को अनुबंधित कर सकता है। भीलों में ढूचकों एवं भपूंग
वाद्य प्रचलित है। ढोल,
शहनाई, ढोलक, पूँगियों आदि का प्रयोग विवाह, त्यौहार आदि रीजि - रिवाजों और उत्सवों में किया जाता है।
लोकगीत, लोकनाट्य एवं लोकवाद्य राजस्थानी संस्कृति एवं सभ्यता के
प्रमुख अंग हैं। आदिकाल से आजतक इन कलाओं का विविध रुप में विकास होता आया है।
इन कलाओं का पारस्परितक सम्बन्घ भी घनिष्ठ है। इन सभी का साथ -साथ प्रयोग रंगमंच
या त्यौराहों पर समां बाँध देता है। ये कलाएँ किसी न किसी पूर में शास्रीय संगीत
की सीधी विचारों से नहीं जुड़ती हैं परन्तु लय और ताल में समानता आ जाती है। यदि
इन कलाओं के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि रह युग में इनमें
एकरुपता रही है जिनकी अभिव्यक्ति राजस्थानी जन जीवन में प्रस्फुटित हुई है। इन
विद्याओं के विकास में भक्ति, प्रेम, उल्लास और मनोरंजन का प्रमुख स्थान रहा है। इनके पल्लवन
में लोक - आस्था की प्रमुख भूमिका रही है। बिना आस्था और विश्वास के इन लोक
कलाओं में अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
लोककला का
राजस्थानी स्वरुप आज भी भारतीय लोककला को नई दिशा देने में अग्रणी है। इनकी
केन्द्रीय स्थिती पंजाब,
मध्य भारत एवं गुजरात तथा उत्तर प्रदेश इन लोक कलाओं से
प्रभावित है। इन भागों के विविध जीवन पक्षों में राजस्थानी लोक कलाओं के प्रभाव
का दिग्दर्शन होता है। इन कलाओं के विषय और साहित्य ने भारत के ही नहीं, विदेशों के कला मर्मज्ञों के हृदय को भी आकर्षित करने में
सफलता प्राप्त की है ग्राहस्थ्य जीवन की सभी साधें लोक कला के माध्यम से प्रकट
हुई है
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