Tuesday, October 4, 2016

भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति

                            
आज हम जिस दौर में जीवन व्यतीत कर रहे हैं वह मीडिया और पूँजी का दौर है|बिना मीडिया और पैसे के सहारे इस युग में जीना मरने के समान है|आज के इस युग में चमक-दमक, शानो-शौकत, आलीशान महल, ग्लैमर, ख़ुशी, मज़ा, सिनेमा, उपभोक्ता, वस्तुओं की भरमार, सत्ता का खेल, अमीरी के सपने, प्रमुख तत्व हैं|इन सब के बिना जीवन को बेकार और विचारों की दृष्टि से ऐसे लोगों को रुढ़िवाद या कन्ज़रवेटिव कहा जाता है|इन सपनों तक पहुँचने के लिए मीडिया ज़रिया बनता है और इनको पूरा करने के लिए पूँजी या पैसा चाहिए होता है|यह फैंटेसी का युग है|इस युग में सत्य, खुशियाँ, सामाजिक और पारिवारिक संबंध, समुदायिक प्रतिपध्धता और सामाजिक सुरक्षा दुर्लभ चीज़ है|इन दिनों बाज़ार, जीवन, विज्ञापन, मीडिया, राजनीति, जीवनशैली सभी क्षेत्रों में यह सब दुर्लभ है|यह सब भूमंडलीकरण की देन है|ऐसी विचारधारा को स्थापित करने में इसकी भूमिका सबसे अहम है|औद्योगिक पूंजीवाद ने इसको जन्म दिया और इन्होंने ही इसे प्रगतिशील बनाया|आज हम सूचना युग में हैं इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता|सूचना के द्वारा हमें आर्थिक संगठन को समझने, ज्ञान के स्तर को जानने और सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन को जानने का मौका मिलता है|लेकिन सूचना का संसार सिर्फ सूचना नहीं देता बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निजतावादी और भूमंडलीकरण के पीछे छुपी उपभोक्तावादी विचारधारा का वर्चस्व भी स्थापित करता है| भूमंडलीकरण एक ऐसा जादू है जिसके चपेट में आज पूरी दुनिया है|यह पूंजीवादी समाज के जीवन का मुख्य तत्व है|जिसमें उपभोक्तावादी संस्कृति निहित है|इसलिए इसको समझना और इसके हक़ीक़त से अवगत होना ज़रूरी मालूम होता है|

                        भूमंडलीकरण क्या है

भूमंडलीकरण को इंग्लिश में ग्लोबलाइजेशन के नाम से जाना जाता है|इसको वैश्वीकरण, उदारीकर और पूंजीवादी समाज भी कहते है|इसका शाब्दिक अर्थ,  स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं को विश्व स्तर पर रूपांतरण करना है। इसे एक ऐसी प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है जिसके द्वारा पूरे विश्व के लोग मिलकर एक समाज बनाते हैं तथा एक साथ कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक ताकतों का एक संयोजन है।वैश्वीकरण का उपयोग अक्सर आर्थिक वैश्वीकरण के सन्दर्भ में किया जाता है| अर्थात व्यापार, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, पूंजी प्रवाह, प्रवास और प्रौद्योगिकी के प्रसार के माध्यम से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में एकीकरण करना| वैश्वीकरण का अर्थ है आर्थिक प्रयोजनों के लिए राष्ट्रीय सीमाओं का एक साथ मिल जाना|अन्तर्राष्ट्रीय व्यपार प्रक्रिया को भूमंडलीकरण कहता हैं|  भूमंडलीकरण वस्तुतः बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों की शोषण एवं दोहन प्रक्रिया का विश्वव्यापी फिनेमिना है।यह नई विश्व व्यस्था है|इस पर 500 से अधिक बहुराष्ट्री कंपनियों का दबदबा है जिनकी सारी अर्त्व्यस्था पर नियंत्रण है|इन कम्पनियों का सारी दुनिया पर वर्चस्व है|अमेरिका की अस्सी फीसदी अर्थव्यस्था के ये मालिक हैं|इसने आज पूरी दुनिया के व्यपार को एक प्लेटफार्म पर इकठ्ठा कर दिया है|इसका सबसे ज्यादा प्रभाव विकासशील देशों पर हुआ|बड़ी-बड़ा बिल्डिंग, आलीशान गाड़ियाँ, चमकते दमकते सड़कें और ट्रांसपोर्ट की नई-नई सुविधाएं आदि यह सब इसी का देन है|इसी की वजह से आज हमारी पहुँच दुनिया के कोने-कोने तक है|घर बैठे ही हम जो चाहते हैं हासिल कर लेते हैं|

                       भूमंणलीकरण का इतिहास

भूमंडलीकरण या वश्वीकरण का शब्द बहुत पुराना है| मनुष्य के विकास के साथ ही इस व्यस्था का पयोग किसी न किसी पारकर होने लगा था| लेकिन व्यापक संदर्भ में वैश्वीकरण की शुरुआत १६ वीं शताब्दी के अंत से पहले हुई, यह स्पेन और विशेष रूप से पुर्तगाल में हुई|१६ वीं शताब्दी में पुर्तगाल का वैश्विक विस्तार विशेष रूप से एक बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था और संस्कृतियों से जुड़ा है। पुर्तगाल का अफ्रीका के अधिकांश तटों और भारतीय क्षेत्रों के साथ विस्तार और व्यापार वैश्वीकरण का पहला प्रमुख व्यापारिक रूप था|16 वीं और 17 वीं शताब्दियों में वैश्विक विस्तार यूरोपीय व्यापार के प्रसार के माध्यम से जारी रहा जब पुर्तगाली  और स्पैनिश साम्राज्य अमेरिका तक फ़ैल गया और अंततः फ्रांस और ब्रिटेन तक पहुँचा। वैश्वीकरण ने दुनिया भर में संस्कृतियों खासकर स्वदेशी संस्कृतियों पर एक जबरदस्त प्रभाव डाला|
17 वीं सदी में वैश्वीकरण एक कारोबार बन गया जब डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, जो अक्सर पहला बहुराष्ट्रीय निगम कहलाती है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उच्च जोखिम के कारण, डच ईस्ट इंडिया कंपनी दुनिया की पहली कम्पनी बन गई, जिसने स्टॉक के जारी शेयरों के माध्यम से कंपनियों के जोखिम और संयुक्त स्वामित्व को शेयर किया; यह वैश्वीकरण के लिए एक महत्वपूर्ण संचालक रहा|सम्पुर्ण रूप से इसका विकास 1980 के बाद हुआ|देखते ही देखते यह पूंजीवादी समाज का दुनिया पर दबदबा बनाने और विश्व अर्थव्यस्था को कुछ लोगों तक सीमित रखने का एक माध्यम बन गया|इसको सफल करने में W.T.O. और विश्व बैंक की अहम् भूमिका रही है|W.T.O. इस व्यस्था का ठेकदार है|भारत में 1990 के बाद भूमंडलीकरण और उदारीकरण का वर्चस्व इतनी तेज़ी के साथ बढ़ा की कुछ ही सलून में सब कुछ बदल ही गया|निजीकरण के चलते इसको तरक्की करने में बहुत इंतजार नहीं करना परा|सूचना दुनिया में इसका सबसे ज्यादा प्रभाव परा|

                        भूमंडलीकरण का प्रभाव

यह एक ऐसी व्यस्था जिसमें किसी के प्रति जवाबदेह नहीं|इसका लक्ष्य है व्यावसायिक माहौल को गति प्रदान करना और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना|साथ ही ज्यादा उपभोक्ता तैयार करना|इसने यहाँ पर क़दम रखने क साथ ही संपत्ति की लूट का माहौल बनाया|हमारे समाज में इसका प्रभाव फैशन की तरह परा|इस की वैचारिक आंधी में मीडिया अपने विचारधारा को भूल गया|भूमंडलीकरण के कारण बड़े पैमाने पर देशी उधोग के लिए खतरा पैदा हुआ है, सरकारों के ऊपर दबाव डाला जा रहा है कि वह कल्याकारी युजनाओं को बंद कर दें अथवा उन के लिए आवंटित धन में कटौती करें|इसके कारण स्थानी स्तर पर पामाली बढ़ी है|क़र्ज़ बढे हैं|सामान्य आदमी की संपत्ति घटी है|कम क्षेत्र में असुरक्षा बढ़ी है|पच्चीस तीस वर्षों की भूमण्डलीकरण सभ्यता ने दुनिया में जहाँ-जहाँ रहन-सहन और भोगने के स्तर को ऊँचा उठाया है, वहीं नैतिकता, मानवता, प्रेम, सदभावना और र्इमानदारी भी कम हुर्इ है। आध्निकता के बीच भौतिकता ने अपनी साख मजबूत की है लेकिन भौतिकता की इस अंधी  दौड़ में सारे रिश्ते टूटते नजर आ रहे हैं। हर स्तर पर संघर्ष चल रहा है|सबसे अधिक प्रभाव मीडिया पर हुआ है|आज वह पूँजी के खातिर सब कुछ करने को तैयार है|वेज्ञापन ने तो समाज को झाग्झोर कर रख दिया है |पूंजी के खातिर हमें सब कुछ प्रयोग में लाने पर मजबूर किया जा रहा  है|भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा मकसद पूंजी बनाना है, इसको पूरा करने लिए उसने विज्ञापन के ज़रिये “बचत करो” की धार की जगह “उपभोग करो” की धारण को जन्म दिया|यही वजह है की अब लोग जितना कमाते हैं उस से ज्यादा खर्च करते हैं|यहीं से उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय होता है|     
           
                       उपभोक्तावादी संस्कृति

उपभोक्तावादी संस्कृति भूमंडलीकरण का मुख्य तत्व है|यह अन्य पर वर्चस्व स्थापित करने की व्यस्था है|इसका सबसे बड़ा हथियार विज्ञापन है| उदारीकरण और वैश्वीकरण के परिणाम स्वरूप भारत में अपनी जड़ें जमा चुका उपभोक्तावाद एक ऐसी आर्थिक प्रक्रिया है जिसका सीधा अर्थ है कि समाज के भीतर  प्रत्येक तत्व उपभोग करने योग्य है| उसे बस सही तरीके से एक जरूरी वस्तु के रूप में बाजार में स्थापित करने की जरूरत है| उसको खरीदने और बेचने वाले लोग तो मिल जाएंगे|क्योंकि मानव मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण कर लेता है, और जब एक ही चीज उसे बार-बार बेहद प्रभावी तरीके से दिखाई जाए तो ऐसे हालातों में उस उत्पाद का व्यक्ति के दिल और दिमाग दोनों पर गहरी छाप छोड़ना स्वाभाविक ही है.
जब हम उपभोक्तावादी संस्कृति की बात करते हैं तो उपभोग तथा उपभोक्तावाद में फरक करते हैं।उपभोग जीवन की बुनियादी जरूरत है। इसके बगैर न जीवन सम्भव है और न वह सब जिससे हम जीवन में आनन्द का अनुभव करते हैं। इस तरह के उपभोग में हमारा भोजन शामिल है जिसके बिना हम जी नहीं सकते या कपड़े शामिल हैं जो शरीर ढकने के लिए और हमें गरमी, सरदी और बरसात आदि से बचाने के लिए जरूरी हैं| इस तरह जीवन की रक्षा करनेवाली या शरीर की तकलीफों को दूर करनेवाली दवाएँ और घर ये सब उपभोग की वस्तुएं हैं| औरतों और मर्दों द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करने के श्रृंगार के कुछ साधन भी उपभोग की वस्तुओं में आते हैं ।यह बिलकुल प्राकृतिक और स्वाभाविक जरूरत है| इसके विपरीत ऐसी वस्तुएँ जो वास्तव में मनुष्य की किसी मूल जरूरत या कला और ज्ञान की वृत्तियों की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं लेकिन व्यावसायिक दृष्टि से प्रचार के द्वारा उसके लिए जरूरी बना दी गयी हैं , उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है|  उपभोक्तावादी संस्कृति ऐसी वस्तुओं को शुद्ध व्यावसायिकता के कारण योजनाबद्ध रूप से लोगों पर आरोपित करती है और मनोविज्ञान की आधुनिकतम खोजों का इसके लिए प्रयोग करती है कि इन वस्तुओं की माया लोगों पर इस हद तक छा जाये कि वे इनके लिए पागल बने रहें|


                   उपभोक्तावादी संस्कृति की भूमिका

भले ही भारत जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में उपभोक्तावाद अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा हो, लेकिन कुछ समय के भीतर ही इसने भारतीय संस्कृति और मानवता को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया है।इस प्रक्रिया के अंतर्गत मानव मूल्यों और नैतिकता को ताक पर रख, व्यक्ति को एक ऐसे उपभोक्ता की तरह प्रचारित किया गया है जो हर उस चीज का उपभोग करेगा जो उत्पादित की जा सकती है। बस उसे इन उत्पादों की जरूरत का अहसास कराने की देर है। उनका सीधा सा फंडा है कि व्यक्ति की जरूरत, उत्पाद के प्रचार के तरीके पर निर्भर करती है। अगर प्रचार सही और आकर्षक तरीके से किया जाए तो उसके भीतर उस उत्पाद को प्रयोग करने की जिज्ञासा अपने आप ही विकसित हो जाएगी।

लेकिन उपभोक्तावाद को समझना इतना भी सरल नहीं है।क्योंकि यह ना सिर्फ व्यक्तियों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करता है,उनके भीतर लालच और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है बल्कि यह महिलाओं के शोषण में भी अपनी भागीदारी निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। यह अपने उत्पाद के प्रचार के लिए महिलाओं को एक साधन के रूप में प्रयोग करता है। पुरुषों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले कई ऐसे उत्पाद हैं जिनके विज्ञापनों में महिलाओं की उपस्थिति को बेहूदा तरीके से भुनाया जाता है। बात यहीं पर समाप्त नहीं होती क्योंकि घरेलू वस्तु जैसे कपड़े धोने और नहाने का साबुन, टूथ-पेस्ट आदि से संबंधित विज्ञापनों में भी महिलाओं को किस ढंग से पेश किया जाता है यह किसी से छुपा नहीं है। कुछ विज्ञापन तो ऐसे हैं जिसमें महिलाओं की नुमाइश करने की कोई जरूरत भी नहीं है लेकिन फिर भी उत्पाद को आकर्षक दिखाने के लिए उन्हें मात्र एक वस्तु के रूप में भद्दे तरीके से दर्शाया जाता है।क्योंकि विज्ञापन निर्माता इस बात को जानते हैं कि पुरुष उत्पाद को देखे ना देखे महिला के प्रति आकर्षित जरूर होंगे, और इस उत्पाद तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश भी करेंगे।
उपभोक्तावाद और मानवता का प्रत्यक्ष रूप में कोई सकारात्मक संबंध नहीं है। उदारीकरण जैसी नीतियों को अपनाने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने वस्तुओं को भारतीय पृष्ठभूमि में अपना स्थान बनाने के लिए एक अच्छा अवसर दिया है। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय लोगों की जीवन शैली में विदेशी हस्ताक्षेप बहुत तेजी से विकसित हुआ है। इन देशों के सम्पर्क में आने के बाद भारत में भी एक ऐसे वर्ग का विकास हुआ है, जिसने पूरी तरह इस उपभोक्तावादी संस्कृति को अपने भीतर समाहित कर लिया है।

भारत जैसे देश जहां अधिकांश आबादी दो वक्त की रोटी की जुगत में अपना सारा जीवन व्यतीत कर देती है, वहां उपभोक्तावाद महंगी और गैर जरूरी वस्तुओं की भूख जगाता है। जिन्हें हासिल करने के लिए व्यक्ति कुछ भी कर गुजरता है। क्योंकि वह जानता है कि अगर उसे समाज में अपने लिए एक सम्माननीय स्थान अर्जित करना है या खुद को अपडेटेड दर्शाना है तो उसके पास यह सब होना बेहद अनिवार्य है. उसकी इस मनोवृत्ति से सीधे तौर पर भ्रष्टाचार बढ़ता है।

उपभोक्तावाद के अंतर्गत एक ऐसे वर्ग का विकास हुआ है जिसने आधुनिक जीवन शैली को पूरी तरह खुद में समाहित कर लिया है। इस वर्ग के लोगों की यह धारणा है कि इन वस्तुओं का उपभोग ही सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार है। उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि इन वस्तुओं का संकलन कैसे किया गया है। कम आय वाले लोग किसी भी तरह जल्दी से जल्दी धनी बन जाना चाहते हैं ताकि अनावश्यक सामान इकट्ठा कर सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सके।

यह कहना गलत नहीं होगा कि उपभोक्तापवाद के इस दौर में मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं है।यह भारत की संस्कृति और मौलिक विशेषताओं से कोई संबंध नहीं रखता। इसके अलावा उपभोक्तावाद के अंतर्गत नैतिकता, ईमानदारी और मानवता का भी कोई अर्थ नहीं है।

कुछ उदारवादी लोगों का मानना है कि भारत में उपभोक्तावाद का प्रचलन गरीबी को घटाने में बेहद सहायक सिद्ध हो सकता है। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट है, क्योंकि उपभोक्तावाद गरीबी को नहीं बल्कि गरीब और हमारे भीतर के मानवता को समाप्त करने वाला है।

                उपभोक्तावादी संस्कृति और समाज

उपभोक्तावाद ने इस कदर समाज में अपनी पहुंच और जड़ जमा लिया है कि इसे समाप्त किया जाना किसी भी रूप में संभव नहीं है। इसीलिए एक विकसित और परिपक्व मानसिकता वाले नागरिक को चाहिए कि उपभोक्तावाद की सीमा में बंधने के बजाय स्वयं सीमा में रहकर इसका प्रयोग करे।चूँकि उपभोक्तावाद व्यापक गरीबी के बीच खर्चीली वस्तुओं की भूख जगाता है , उससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है|कम आय वाले अधिकारी अपने अधिकारों का दुरपयोग कर जल्दी से जल्दी धनी बन जाना चाहते हैं ताकि अनावश्यक सामान इकट्ठा कर सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें । इसी का एक परिणाम दहेज को लेकर हो रहे औरतों पर अत्याचार भी हैं । बड़ी संख्या में मधयमवर्ग के नौजवान और उनके माता पिता जो अपनी आय के बल पर शान बढ़ानेवाली वस्तुओं को नहीं खरीद सकते दहेज के माध्यम से इस लालसा को मिटाने का प्रयास करते हैं| इन वस्तुओं का भूत उनके सिर पर ऐसा सवार होता है कि उनमें राक्षसी प्रवृत्ति जग जाती है और वे बेसहारा बहुओं पर तरह तरह का अत्याचार करने या उनकी हत्या करने तक से नहीं हिचकते| डाके जैसे अपराधों के पीछे कुछ ऐसी ही भावना काम करती है|  राजनीतिक भ्रष्टाचार का तो यह मूल कारण है| राजनीतिक लोगों के हाथ में अधिकार तो बहुत होते हैं , लेकिन जायज ढंग से धन पाने की गुंजाइश कम होती है| इस लिए वह ऐसा करते हैं|त्यौहार पहले भी आते थे परन्तु उनपर बाजार का प्रभाव इतना नहीं था। दिवाली  पर मिट्टी के दिए तेल में जलाये जाते थे। अब इलेक्ट्रिक बल्ब ने उसकी जगह ले ली है। अब बाजार हमें यह बताता है कि हमें त्यौहार कैसे मनाना चाहिए। उसमें बाजार आपकी मदद करेगा। इस त्यौहार खुशियाँ घर लाना चाहते हैं तो डेरी मिल्क का उपहार पैकेट लायें। यदि आप अपने घरवालों से प्यार करते हैं तो उन्हें पेप्सी पिलाएँ। अब बाजार हमारी आवश्यकताएं भी निर्मित करता है।ऐसे मौके पर भरी छूट देकर बाज़ार की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया जाता है|  


                  उपभोक्तावादी संस्कृति और गाँव

भारत के गाँवों में जो थोड़ा बहुत स्थानीय आर्थिक आधार था उसको भी इस संस्कृति ने नष्ट किया है| भारतीय गाँवों की परम्परागत अर्थ-व्यवस्था काफी हद तक स्वावलम्बी थी और गाँव की सामूहिक सेवाओं जैसे सिंचाई के साधन , यातायात या जरूरतमन्दों की सहायता आदि की व्यवस्था गाँव के लोग खुद कर लेते थे|हाल तक गाँवों में पैसेवालों की प्रतिष्ठा इस बात से होती थी कि वे सार्वजनिक कामों जैसे कुँआ , तालाब आदि खुदवाने , सड़क मरम्मत करवाने , स्कूल और औषधालय आदि खुलवाने पर धन खरच करें| इस पर काफी खरच होता था और आजादी के पहले इस तरह की सेवा-व्यवस्था प्राय: ग्रामीण लोगों के ऐसे अनुदान से ही होती थी| यह सम्भव इस लिए होता था क्योंकि गाँव के अन्दर धनी लोगों की भी निजी आवश्यकताएँ बहुत कम  थीं और वे अपने धन का व्यय प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ऐसे कामों पर करते थे । इसी कारण पश्चिमी अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों की हमेशा यह शिकायत रहती थी कि भारतीय गाँवों के उपभोग का स्तर बहुत नीचा है जो उद्योगों के विकास के लिए एक बड़ी बाधा है|
    उपभोक्तावादी संस्कृति ने गाँवों की अर्थव्यवस्था के इस पहलू को समाप्त कर दिया है । अब धीरे धीरे गाँवों में भी सम्पन्न लोग उन वस्तुओं के पीछे पागल हो रहे हैं जो उपभोक्तावादी संस्कृति की देन हैं । चूँकि गांव के सम्पन्न लोगों की सम्पन्नता भी सीमित होती है अब उनका सारा अतिरिक्त धन जो पहले सामाजिक कार्यों में खरच होता था वह निजी तामझाम पर खरच होने लगा है और लोग गाँव के छोटे से छोटे सामूहिक सेवा कार्य के लिए सरकारी सूत्रों पर आश्रित होने लगे हैं । इसके अलावा जो भी थोड़ा गाँवों के भीतर से उनके विकास के लिए प्राप्त हो सकता था अब उद्योगपतियों की तिजोरियों में जा रहा है। इससे गाँवों की गरीबी दरिद्रता में बदलती जा रही है ।
                      
                              निष्कर्ष

आज यह संस्कृति हमारे जीवन में इस तरह घुस चूका है की इस से बचना बहुत मुश्किल हो गया है| उपभोक्तावाद का दबाव बहुत जबरदस्त होता है| किसी व्यक्ति के इर्दगिर्द लोग कैसे रहते हैं , क्या पहनते हैं आदि की देखा-देखी ही वह अपना रहन-सहन बनाने की कोशिश करता है| किसी भी स्तर के उपभोग को सामान्य मान लें तो वह इस दबाव से नहीं बच सकता| इससे वह तभी बचेगा जब उसे यह पता हो कि कौन सी सामाजिक शक्तियाँ इस दबाव के पीछे काम करती हैं और कैसे वे उसके बुनियादी मूल्यों के विपरीत प्रभाव डालती हैं|या उन उद्देश्यों को नष्ट करने वाली हैं जिनको लेकर वह चलता है।आज उपभोक्तावाद पूँजीवादी शोषण व्यवस्था का परिणाम भर नहीं है बल्कि उसे जिन्दा रखने का सबसे कारगर हथियार भी है।इसलिए इस पर विचार-विमर्श बहुत ज़रूरी हो गया है|  

      

1 comment:

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