इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के क्षेत्र में टेलीविज़न की एक अलग पहचान है|एक
द्रश्य-श्रव्य साधन होने की वजह से यह काफी लोकप्रिय व प्रभावशाली है|1920 के दशक
में टेलीविज़न प्रसारण का आरंभिक प्रयोग अमेरिका और यूरोप में किया गया|भारत में
इसका सफ़र 15 सितंबर, 1959 को शुरू हुआ|उसके बाद धीरे-धीरे तकनीकी विकास के साथ-साथ
इसमें में भी विस्तार होता रहा|भारत में बहुत दिनों तक दूरदर्शन अकेले ही टी.वी.
के रूप में हुकूमत करता रहा|1990 में जब उदारीकरण और निजीकरण का दौर आया तो इसका
प्रभाव इस क्षेत्र में भी हुआ है|देखते ही देखते चैनलों की होड़ सी लग गयी|अनेक
चैनलों का उदय हुआ|शिक्षा, स्वास्थ, सूचना, समाचार और मनोरंजन आदि का संप्रेषण
करने के लिए विभिन्न चैनलों और कार्यक्रमों का आयोजन किया गया|
आज का टेलिविज़न
आज टेलीविज़न की अलग ही धूम है|लोगों के दिलों पर इसी का राज है|इसने अपना अलग
ही महत्त्व बना रखा है|लोग अपनी भावनाओं के साथ इस से जुड़े हुए हैं|इसके सामने
दुसरे माध्यम फीके पड़ गए हैं|चूँकि इस माध्यम में समाचर या सूचनाओं का
आदान-प्रदान द्रश्य-श्रव्य माध्यम द्वारा होता है इसलिए लोगों पर इसका ज्यादा
प्रभाव पड़ता है|इस में कोई शक नहीं की आज टेलिविजन लोगों के जीवन का एक अंग बन
चूका है|तमाम माध्यमों के बीच इसको प्राथमिक हैसियत हासिल है|अब तो नेशनल और
क्षेत्रीय सभी भाषाओँ में चैनल पर्याप्त हैं|अनेक भाषाओँ और अनेक प्रकार के कार्यक्रम
प्रस्तुत किये जाते हैं|समाचार ,फिल्म ,डाक्युमेंट्री, डाक्युड्रामा, रियलिटी शो, टॉक
शो, मनोरंजकपरक कार्यक्रम, खेल, भूगोल, इतिहास, धर्म, साहित्य, राजनीतिक कार्यक्रम
और धरावाहिक आदि से संबंधित कार्यक्रम विभिन्न चैनलों पर प्रस्तुत किया जाता है|
धारावाहिक
अगर इन में से धारावाहिकों की बात की जाए तो आज इसका वर्चस्व घर-घर और जन-जन
तक है|टेलीविजन कार्यक्रमों के बीच इसका दबदबा है|इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा उस
वक़्त सामने आता है जब आई.पी.एल. के दौरान पूरा देश क्रिकेट के आगोश में डूबा हुआ
था वहीं हिंदी धारावाहिक अपनी मौजूदगी का एहसास दर्शकों को बखूबी करवा रहे थे|कई
ने तो रेटिंग में आई.प.एल. से बाज़ी भी मर ली थी|
टेलीविज़न पर कई प्रकार के धारावाहिकों का प्रसारण होता है|उनमें पारिवारिक
धारावाहिकों की लोकप्रियता का कोई जवाब ही नहीं|इसने वह ऊंचाई हासिल कर ली है जहाँ
दूसरों का पहुँचना संभव नज़र नहीं आता है|स्टार प्लस पर “दीया और बाती हम” “वीरा”,
“साथ निभाना साथिया”, “यह रिश्ता किया कहता है” और “इस प्यार को किया नाम दूँ” आदि
और कलर्स पर “उड़ान”, “मेरी आशकी तुम से ही”, और “बेइन्तहा” आदि इसी प्रकार
ज़ी.टीवी. और लाइफ ओके पर भी पारिवारिक धरावाहिकों का प्रसारण बड़े पैमाने पर किया
जा रहा है|अनेक धरावाहिकों की मजूदगी के बावजूद हर एक ने अपनी अहमियत का लोहा
मनवाया है|
आज महिलाओं ने इसको देखना खाना खाने की तरह ज़रूरी समझ लिया है|इसके पीछे
उपभोक्तावादी संस्कृति ने अहम रोल अदा किया है|इन धारावाहिकों में मानवीयता के परे
ऐसा सस्पेंस और टकराव पैदा किया जाता है की दर्शक न चाहते हुए भी उसको देखने पर
मजबूर हो जाता है|न्यूज़ चैनल्स भी दर्शक को इकठ्ठा करने और उन के अन्दर इसको देखने
की उत्सुकता उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं|इंडिया टीवी इस लाइन
में सब से आगे नज़र आता है|बाकायदा इस को प्रोमोट करने के लिए कार्यक्रम बनाया व
दिखाया जाता है|एक ड्रामा को हकीक़त की शक्ल दे दी जाती है|जैसे: आज होगी सिमरन की
शादी, कैसे होगी साँस बहु में बिगाड़ देखिये आज शाम 8 बजे स्टार प्लस पर|प्रिंट
मीडिया भी इस मैदान में किसी से पीछे नहीं|कई अख़बारों में आगे धारावाहिक में किया
होने वाला है इसको लेकर परिशिष्ट छपते हैं|हक़ीक़त यह है की इनको हम से कोई लगाव या
मोहब्बत नहीं है|ये जो कार्यक्रम दिखाते हैं वह सिर्फ उपभोक्ता बनाने और विज्ञापन
दिखाने की ठेकेदारी के सिवा और कुछ नहीं|पारिवारिक कार्यक्रम होने के बावजूद विज्ञापन
के खातिर इन धारावाहिकों में किया कुछ दर्शकों को दिखाया जाता है|पूँजी के आगे
समाज और संस्कृति को बे दखल करके मानसिकता के बदलाव और दर्शक यही देखना चाहते हैं
के बहाने क्या-क्या परोसा जा रहा है, इस पर विचार करने की आवश्यकता है|
पारिवारिक धारावाहिक की विशेषता
टेलीविज़न पर प्रसारित होने वाले अधिकतर धारावाहिकों में मुख्य किरदार महिलाओं
के ही होते हैं। छोटे पर्दे पर दिखाये जाने वाले ज्यादातर धारावाहिकों में
महिलाएं नई-नई कूटनीतिक चालें चलकर बड़े-बड़े घरानों को बर्बाद या आबाद करती नज़र
आती हैं। उच्च वर्ग का रहन सहन इन सीरियल्स पर इतना हावी है कि आम महिलाओं के जीवन
से जुड़ी समस्याओं के लिए इनमें कोई जगह नजर नहीं आती। इतना ही नहीं इन
धारावाहिकों में कुछ बातें तो हकीक़त से बिल्कुल उलट ही नजर आती है।
इन सीरियल्स के ज्यादातर महिला किरदार
कामकाजी न होकर गृहणी के रूपे में गढ़े जाते हैं । इन धारावाहिकों में घरों में होने वाली उठा-पटक काफी
तड़क-भड़क के साथ परोसी जाती है। जिनमें महिला किरदार अहम भूमिका निभाते नजर आते है।
इन धरावाहिकों में परंपरा के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है। आधारहीन कल्पनाशीलता के नाम पर इनमें कई गैर
जिम्मेदाराना बातें दिखाई जाती है। हद से ज्यादा खुलापन और और सामाजिक रिश्तों की
मर्यादा से खिलवाड़ को तकरीबन हर सीरियल की कहानी का हिस्सा बनाया जाता है। हैरानी
की बात तो यह है कि यह सब कुछ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पेश किया जा
रहा है। जिसका विचारों और संस्कारों पर गहरा असर पड़ रहा है। बहुत से धारावाहिकों
में विवाहिक संबंधों को प्रमुखता से दिखाया जाता है।
अधिकतर
भारतीय भाषा और साज सज्जा में दिखायी जाने वाली महिला पात्रों को व्यवहारिक स्तर
पर ऐसे कुटिल, कपटी,साजशी और षडयंत्रकारी रूप में टेलीविजन
के पर्दे पर उतारा जा रहा है जो हकीकत के सांचे में फिट नहीं बैठते। विवाह संस्कार
हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है,
जबकि इन धारावाहिकों में शादी जैसे गंभीर
विषय को भी मनमाने ढंग से दिखाया जाता है।
आजकल टी.वी.
धारावाहिकों में दिखाए जाने वाले अधिकांश चरित्र परस्पर प्यार और सहयोग पर आधारित
न होकर विवाहेत्तर संबंध, साजिश और रंजिश पर आधारित होते हैं। ऐसा लगता
है कि इन धारावाहिकों में औरतों को सुबह से देर रात तक दूसरा कोई काम ही नहीं रहता
है। सुबह उठने के साथ ही भड़कीली साड़ी पहनने, बिंदी लगाने और मांग भरने के बाद अपने पतियों
के कान भरना और अपने इशारों पर उन्हें नचाना ही उनका काम रह गया है। रात के भोजन
तक यही सब चलता रहता है। डाइनिंग टेबल पर कुछ और भेद खुलते हैं और घड़ियाली आंसू
बहाए जाते हैं।
घरेलू महिलाओं और परिवार पर इसका प्रभाव
टी.वी. चैनलों पर अमर्यादित एवं असंस्कृत धारावाहिकों की
बाढ़ आई हुई है। ये धारावाहिक मानो भारतीय संस्कृति को नष्ट करने, नारी-चरित्र
की शालीनता और गरिमा को गलत रूप में प्रस्तुत करने,
परस्पर घृणा,
ईष्या, आर्थिक प्रतिस्पर्धा में लिप्त रहने, बहुपति, बहुपत्नी, दो
अर्थी अश्लील भाषा के प्रयोग, बलात्कार, गर्भपात, माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन एवं अन्य सगे सबंधियों के पवित्र
सम्बंधों को बिगाड़ने की आधुनिक कोंचिग सेंटर बन गए हैं। इनका स्पष्ट दुष्प्रभाव
समाज पर पड़ रहा है। समाज के बड़े घरानों में प्रयोग होने वाली भाषा, ऊल-जलूल
वेष-भूषा एवं किशोर पीढ़ी में सेक्स के प्रति बढ़ता आकर्षण इन धारावाहिकों एवं
चैनलों के प्रभाव का ही परिणाम है। कोई दिन ऐसा नहीं होता जबकि इन धारावाहिकों से
प्रेरित किसी अपराध का समाचार न आता हो।लेकिन दु:ख इस बात का है कि परिवारों की
परिपक्व गृहणियां इन धारावाहिकों की निन्दा करने अथवा न देखने की बजाय इन्हें न
केवल चाव से देखती हैं बल्कि अपने क़ीमती समय को परिवार के बच्चों के समक्ष इनकी
चर्चा कर नष्ट भी करती हैं।समाचार पत्रों में प्रकाशित सर्वेक्षणों के अनुसार भी
इन धारावाहिकों के कारण अनके महिलाएं मानसिक अवसाद एवं हृदय रोग की शिकार हो रहीं
हैं।
भारतीय सभ्यता ,संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर
दिखाई जा रही ये कहानियां परंपरागत मान्यताओं अवमूल्यन और सामाजिक सांस्कृतिक
विकृति को जन्म दे रही है। दिनभर में कई बार प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों के
दर्शक लगभग हर उम्र के लोग है। आमतौर पर परिवार के साथ देखे जाने वाले इन टीवी
सीरियलों से परिवार का हर सदस्य चाहे छोटा हो या बड़ा जैसा चाहे वैसा संदेश ले रहा
है।
आलीशान रहन सहन और हर वक्त सजी धजी रहने वाली महिला किरदारों की जीवन शैली एक
आम औरत को हीनभावना और उग्रता जैसी सौगातें दे रही है। टीवी चैनलों पर हर
वक्त छाये रहने वाले इन धारावाहिकों में संस्कारों की बातें तो बहुत की जाती हैं
पर पात्रों की जीवन शैली और दिखाई जाने वाली घटनाओं को देखकर महसूस होता है कि
इनके जरिए कुछ नई धारणाएं , नए मूल्य गढ़े जा रहे हैं।
ऐसे कार्यक्रमों के बीच में दिखाये जाने वाले विज्ञापन भी खासतौर पर महिलाओं
को संबोधित होते हैं। कई टीवी सीरियलों के तो कहानी और पात्र ही विज्ञापित
प्रॉडक्ट का सर्मथन करने वाले होते हैं। बात चाहे पार्वती और तुलसी जैसे किरदारों
द्धारा पहनी मंहगी साड़ियों की हो या रमोला सिकंद स्टाइल बिंदी की । इन सास बहू वाले सीरियलों में दिखाये जाने
वाले उत्पाद आसानी से बाज़ार में अपनी जगह बना लेते हैं। इन सीरियलों में महिला किरदारों का
प्रेजेंटेशन और साज सज्जा का इतना व्यापक असर होता है कि बाज़ार में इन चीजों की मांग लगातार बनी रहती
है।इन सबका असर हमारी जेब पर पपरता है|बच्चे, बीवी और घर के दुसरे सदस्य इसको
खरीदने की जिद करते हैं|पर्याप्त न होने पर घर में तनाव का माहौल जन्म लेता है|ऐसे
ही धीरे-धीरे मोहब्बत और प्यार का मतलब नए प्रोडक्ट का घर तक पहुचना ही समझ लिया
जाता है|
इन धारावाहिकों का हमारे परिवार और
समाज पर बुरा असर पड़ रहा है। शहरों में रहने वाली युवतियां सोचती होंगी कि अगर सास
इतनी ही कड़क होती है, लोगों के बीच इतनी साजिश चलती है तो इस सास और
संयुक्त परिवार से भगवान बचाए। बच्चों के मन-मस्तिष्क पर भी बहुत बुरा असर हो रहा
है। वे इसी को जीवन शैली समझ बैठते हैं|वे गलतियां करते हैं और बचने के रास्ते
इन्हीं धारावाहिकों से सीख कर झूठे और गलत तरीके अपनाते हैं।महिलाऐ भी विवाह के
बाद संयुक्त-परिवार में रहने और दुसरे सदस्यों के साथ साजिश रचने का तरीक़ा यहीं से
सीखती हैं|फिर परिवार में बिगार पैदा करत हैं|परिवार की ख़ुशी, सुख, प्यार और मोहब्बत
सभी ख़तम हो जाते हैं|दिन भर सास बहू के खिलाफ, नन्द भाभी के खिलाफ साजिश रचने,
बीवी शौहर का कान भरने और उसके ऊपर गलत संबंध का आरोप लगाने में अपना दिमाग खपाते
रहते हैं|जिसका सीधा-सीधा असर बच्चो पर भी होता है|
इन धारावाहिकों में महिला किरदार या तो पूरी तरह आदर्श होते हैं या नैतिकता से कोसों दूर। जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि टीवी सीरियल्स में दिखाये जा रहे महिला चरित्र वास्तविकता से परे हैं। क्या एक आम महिला दिन भर सज-धज कर सिर्फ कुटिलता करने और साजिश रचने की योजना बनाती रहती है ..? ज़्यादातर गृहणियां ऐसा करते दिखाई जाती हैं ...जबकि हकीकत यह है घर पर रहने वाली महिलाओं को इतना काम होता है की खुद के लिए भी समय नहीं मिलता | कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता तो और भी ज्यादा है ...।सच में मुझे तो ये किरदार घर-परिवार और समाज में मौजूद आम महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाले ही लगते हैं...!
इन धारावाहिकों में महिला किरदार या तो पूरी तरह आदर्श होते हैं या नैतिकता से कोसों दूर। जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि टीवी सीरियल्स में दिखाये जा रहे महिला चरित्र वास्तविकता से परे हैं। क्या एक आम महिला दिन भर सज-धज कर सिर्फ कुटिलता करने और साजिश रचने की योजना बनाती रहती है ..? ज़्यादातर गृहणियां ऐसा करते दिखाई जाती हैं ...जबकि हकीकत यह है घर पर रहने वाली महिलाओं को इतना काम होता है की खुद के लिए भी समय नहीं मिलता | कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता तो और भी ज्यादा है ...।सच में मुझे तो ये किरदार घर-परिवार और समाज में मौजूद आम महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाले ही लगते हैं...!
निष्कर्ष
आज के अनेक पारिवारिक धारावाहिकों में इस देश के सामान्य मध्यवर्ग का
जीवन-संघर्ष नदारद है।यह टेलीविज़न कार्यक्रम समाज को अन्दर से खोखला कर रहा है।ये
सारे धारावाहिक "पारिवारिक" ज़रूर कहलाते हैं पर आम और आदर्श जीवन का
मज़ाक उड़ाते हैं, छिपी वासनाओं को हवा देते हैं,
युवा वर्ग को कामुक बनाते हैं और हमसे हमारे
सांस्कृतिक जीवन के सारे पारिवारिक संस्कार छीनते हैं।गलाकाट प्रतिस्पर्धा का यह
अर्थ कदापि नहीं है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को सशक्त और आत्मघाती दृश्य-मीडिया के
हवाले कर पहले से ही विषमता भरे समाज में सिर्फ चमक-दमक,
माडलिंग, फैशन, उत्तेजक संगीत और उपभोक्तावाद के हर लटके-झटके
से पारिवारिक विघटन के बीज बोते रहें। यह पूरी प्रक्रिया स्पष्ट करती है कि आज के
ये धारावाहिक सिर्फ पुँजीवादी और बाज़ारवादी समाज का उपभोक्ता तैयार करने और बनाने
के हथियार हैं और कुछ नहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि इन धारावाहिकों के
दुष्प्रभावों के विरुद्ध महिला मंडल, सामाजिक संगठन, नारी एवं बाल कल्याण मंत्रालय कहां सोए हुए हैं?
आज तो वैसे ही लोगों के बीच आत्मीयता समाप्त हो
रही है, ऐसे में ये धारावाहिक आग में घी डालने का काम
कर रहे हैं। इसलिए ऐसे धारावाहिकों पर रोक लगनी चाहिए। मैं धारावाहिक निर्माताओं
से कहना चाहती हूं कि वे ऐसे धारावाहिक बनाएं जिसमें परस्पर प्रेम,
सहयोग और आत्मीयता की झलक प्रभावी हो और
नकारात्मक बातें जिससे हतोत्साहित हों।
बहुत अच्छा है
ReplyDeleteLekin kai mahilaye serials k madhayam m jagrook bhi hot I h .ye pariwar k bich samjasys baidha kr chalti h .ek Adarsh bahu banane ki kosish karti h .am me yug m madam se madam mila kar chalna bhi sikhati h galat air anayaay se ladna bhi sikhati h
ReplyDeleteLekin kai mahilaye serials k madhayam m jagrook bhi hot I h .ye pariwar k bich samjasys baidha kr chalti h .ek Adarsh bahu banane ki kosish karti h .am me yug m madam se madam mila kar chalna bhi sikhati h galat air anayaay se ladna bhi sikhati h
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