बदलापुर
बदलापुर एक भारतीय बॉलीवुड फ़िल्म है।जिसका निर्देशन श्रीराम राघवन और निर्माण दिनेश विजन एवं सुनील लुल्ला ने किया है।बदलापुर
नाम से ही जाहिर होता है कि यह फिल्म बदले (रिवेंज) की कहानी है। बदलापुर मुंबई
शहर के कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। साधारण तौर पर बदला के दो अर्थ हैं एक
किसी से अपनी रंजिश पूरी करना और दूसरा अर्थ 'परिवर्तन' होता
है। शब्द के इन दोनों अर्थों को फिल्म में बखूबी इस्तेमाल किया गया है
इस फिल्म की शुरुआत से पहले एक
अफ्रीकी कहावत पर्दे पर चमकती है, ‘कुल्हाड़ी भले ही भूल जाए, मगर पेड़ उसे याद रखता है।’ बदलापुर ऐसी ही फिल्म है। श्रीराम
राघवन भले ही कभी इसे भूल जाएं, मगर देखने वाले याद रखेंगे। इस एक शुरुआती कथन से ही बदले का माहौल बनाने की कोशिश
की है डायरेक्टर श्रीराम राघवन ने| बात की
जाए 'बदलापुर' की, तो यह
बदले पर आधारित मूवी है। बदले पर बनी फिल्मों की संख्या हजारों में है, लेकिन
यह फिल्म इस विषय को नए अंदाज में पेश करती है। उम्दा प्रस्तुतिकरण की वजह से यह
डार्क मूवी दर्शक को बांध कर रखती है।
बदला' और भारतीय फिल्मों में बदले का इतिहास बहुत पुराना है| कभी मां और बाप की मौत का बदला, कभी बीवी और बहन के साथ बलात्कार का बदला| कभी दुश्मनों के बीच लड़ाई के साथ बदला तो
कभी पुश्तैनी बदले की कहानी| हर दशक में बदला लेने की कहानी
को डायरेक्टर्स ने अपने-अपने अंदाज में सस्पेंस और ड्रामा के तौर पर पेश किया है| अब 2015 में कुछ ऐसी ही बदले की कहानी लेकर आए हैं डायरेक्टर
श्रीराम राघवन|
बदलापुर बदले वाली फिल्म है|अब तक बॉलीवुड बदले पर जितनी भी फ़िल्में बनी हैं,
सभी में बहुत खूनखराबा दिखाया जाता रहा है|बदलापुर कुछ अलग किस्म की है|ऐसा नही है
कि इस फिल्म में हिंसा नहीं है, नामात्र की है | असल में यह एक साईकोलोजिकल थ्रिलर
फिल्म है| निर्देशक श्री राम राघवन ने फिल्म की कहानी को नए तरीके से पेश किया है|
इस तरह की कहानियों को डार्क कहानियां कहा जाता है| इनमें सभी काम खलनायकी व्यवहार
वाले होते हैं|इन कहनियों का अलग ही मज़ा होता है और ज़िन्दगी के ज्यादा निकट होती
हैं| हॉलीवुड में एक समय इस प्रकार की खूब फ़िल्में बनाई गईं, जिसमें दर्शक की
सहानुभूति किस के साथ हो यह फैसला कर पाना मुश्किल हो जाता था|
बदलापुर का हीरो वरुण धवन है, जो इस से पहले 2-3 फिल्मों में कम कर चूके
हैं|”स्टूडेंट्स ऑफ़ द एयर” से अपने फिल्म की शुरुआत करने वाले इस एक्टर ने अभी तक
कॉमेडी और कूदने फांदने वाली भूमिकाएं की हैं लेकिन इस फिल्म में उस ने मैचुअर
एक्टिंग की है| वह काफी परिपक्व दिखते हैं | निर्देशक ने उस के किरदार को काफी
गंभीर बनाया है| वह सोची समझी चाल के तहत अपना बदला पूरा करता है| हालाँकि फिल्म
देखते वक़्त शुरू में ही आभास हो जाता है की नायक कैसे और किस से बदला लेगा फिर भी
दर्शक कुछ हद तक बंधे से रहते है, यह जानने के लिए की नायक का बदला लेने का तरीक़ा
क्या होगा|
श्रीराम राघवन ने खुद की लिखी कहानी और पटकथा का बढ़िया ट्रीटमेंट किया है|राघव
उर्फ़ रघु (वरुण धवन) एक नौजवान है| वह अपनी पत्नी मीशा (यमी गौतम) और बेटे के साथ
रहता है| अचानक एक दिन एक बैंक डकैती के दौरान बैंक लुटेरे मीशा और उसके बेटे को किडनैप
कर मार डालते हैं| बैंक डकैती में शामिल एक युवक लायक (नवाज़ुद्दीन सिद्दकी) पकड़ा
जाता है और दूसरा हर्मन (विनय पाठक) फरार हो जाता है|लाख कोशिशों के बावजूद लायक
अपने पार्टनर का नाम पुलिस को नहीं बताता| बाद में उसे बीस साल की सजा हो जाती है|
उधर रघु हर पल कातिल से बदला लेने के बारे में सोचता रहता है| बदला लेने के
मक़सद से वह छोटे से शहर बदलापुर पहुँचता है| वहां उसे कातिलों के बारे में पता
चलता है, जो बैंक डकैती में शामिल थे| वह पहले लायक की प्रेमिका झिमली (हम कुरैशी)
के मदद से लायक तक पहुँचता है , जो 15 साल की सजा काट कर रिहा होता है| कहानी
पंद्रह साल का जंप लेती है। लायक पंद्रह साल की सजा काट चुका है। पता चलता है कि
उसे कैंसर हो चुका है और अब उसकी जिंदगी का एक साल ही बचा है। कैदियों की भलाई के
लिए काम कर रहे एक एनजीओ की कार्यकर्ता अकेली जिंदगी बसर कर रहे रघु से मिलती है।
वह उससे आग्रह करती है कि अगर वह चाहे तो लायक की रिहाई हो सकती है। लायक का आखिरी
साल राहत में गुजर सकता है। रघु पहले मना कर देता है, लेकिन
लायक के साथी तक पहुंचने की उम्मीद में वह उसकी रिहाई के लिए तैयार हो जाता है।
लायक की रिहाई, दूसरे साथी की पहचान और रघु की पूरी होती
दिखती रंजिश के साथ घटनाएं तेज हो जाती हैं। फिर उसे उसके दुसरे साथी हर्मन का पता चलता है जो अपनी पत्नी कोको (राधिका
आप्टे)के साथ ऐयाशी की ज़िन्दगी गुजार रहा है|राघव हर्मन और उसकी बीवी की हत्या कर
देता है|हर्मन को मारने से पहले वह उस से ढाई करोड़ रूप्या ले लेता है जो लायक का
हिस्सा था|
पुलिस अफसर का शक राघव पर है| वह राघव को ब्लैकमेल करता है और ढाई करोड़ रूपया
देने को कहता है| इधर लायक को यह महसूस हो जाता है कि राघव उसे भी जान से मर
डालेगा, वह हर्मन और कोको का इलज़ाम अपने सिर लेता है और फिर से जेल पहुँच जाता है|
इस तरह राघव का बदला पूरा होता है और वह अपने शहर लौट जाता है|
फिल्म की पटकथा काफी कसी हुई है| हालाँकि बीच-बीच में कई द्रश्य अनावश्यक से
लगते हैं|फिल्म के संवाद अच्छे हैं|।फिल्म में सभी कलाकारों का अभिनय अपनी-अपनी
जगह ठीक है, वरुण धवन का
काम अच्छा है, उनकी तारीफ इस बात
के लिए करनी होगी कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में ऐसा किरदार करने की हिम्मत
दिखाई और अच्छी कोशिश भी की| इन्हों ने लवर
बॉय का चोला उतार फेंकने का साहस दिखाया है। एक बच्चे के पिता और फोर्टी प्लस का
किरदार निभाने में उन्होंने हिचक नहीं दिखाई। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय कमजोर भी
रहा है, लेकिन
उनके प्रयास में गंभीरता नजर आती है।
नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का अभिनय भी शानदार है, दर्शकों को नवाज का अभिनय
ज़्यादा पसंद आ सकता है। फिल्म
देखते वक़्त दर्शक इन दोनों किरदारों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं| फिल्म में
सभी कलाकारों ने चरित्र भूमिकाएं ही निभाई हैं, कोई भी कलाकार पूरी तरह हीरो या
हीरोइन नहीं है | यामी गौतम को कम फूटेज़ दी गयी है , फिर भी उस ने खुशनुमा एक्टिंग
की है| फिल्म की एक्ट्रेस में झिमली के रूप में हुमा कुरैशी हो या कंचन उर्फ कोको
के रूप में राधिका आप्टे. समाज सेवी के किरदार में दिव्या दत्ता हो या रघु की
पत्नी के रूप में यामी गौतम, सभी हसीन लगी हैं| फिल्म प्रिडिक्टिबल नहीं है
यानी आगे क्या होने वाला है यह आपको पहले पता चलना मुश्किल है। फिल्म की घटनाएं
आपकी सोच के विपरीत घटेगीं। पुलिस ऑफिसर के रूप
में कुमुद मिश्रा प्रभावित करते हैं और उनका रोल फिल्म की अंतिम रीलों में कहानी
में नया एंगल बनाता है। राधिका आप्टे का अभिनय जबरदस्त है। एक सीन में रघु उसे
कपड़े उतारने को कहता है और इस सीन में उनके चेहरे के भाव देखने लायक है। सचिन
जिगर का संगीत बेहतरीन है। निर्देशक की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने गानों को
फिल्म में बाधा नहीं बनने दिया।
श्रीराम की इस कहानी के तमाम सिरे
खुले हुए हैं। जिन्हें कसा नहीं गया। लायक की सेक्स वर्कर प्रेमिका (हुमा), लायक की मां, लायक के बारे में जानकारियां निकालने
में लगी एक जासूस,
लायक की रिहाई की कोशिशों
में लगी सोशल वर्कर (दिव्या दत्ता), हरमन और उसकी पत्नी (राधिका आप्टे)
जैसे किरदार आते-जाते रहते हैं।
कोई भी कहानी में ढंग से हस्तक्षेप नहीं करता। मजेदार बात यह कि पूरी फिल्म में नवाजुद्दीन धीरे-धीरे इस तरह उभरते हैं कि सबका ध्यान उन पर ही टिक जाता है।
कोई भी कहानी में ढंग से हस्तक्षेप नहीं करता। मजेदार बात यह कि पूरी फिल्म में नवाजुद्दीन धीरे-धीरे इस तरह उभरते हैं कि सबका ध्यान उन पर ही टिक जाता है।
बदलापुर' की
कास्टिंग, लिखावट
और निर्देशन तीनों की भूमिका में श्रीराम राघवन ने अपनी छाप छोड़ी है| कहना गलत
नहीं होगा कि इस फिल्म से उन्होंने 'एजेंट
विनोद' की
नाकामयाबी का बदला लिया है|फिल्म की एक और खासियत है इसके गाने| खास बात यह है कि
फिल्म का कोई भी गाना इसकी गति को धीमा नहीं करता| छायांकन
बेहतरीन है। जो बात अभिनय व कहानी से नहीं कही गयी वह कैमरा कह पाता है।
पुणे-मुंबई क्षेत्र के मौसम और नजारों को सूक्ष्मता से कैद किया गया है। शायद अरसे
बाद एक हिन्दी फ़िल्म आयी है जो मुंबई की बजाय पुणे पर केंद्रित है। उस सन्दर्भ में
गहराई से काम किया गया है।
फिल्म में कुछ
कमियां भी हैं। खासतौर पर सेकंड हाफ में फिल्म थोड़ी बिखरती है और क्लाइमैक्स में
फिल्म के विलेन के रूख में आया परिवर्तन हैरान करता है। दिव्या दत्ता का किरदार भी
फिल्म में मिसफिट लगता है, लेकिन ये कमियां फिल्म देखने में
बाधक नहीं बनती है। कहानी मध्यांतर के पूर्व ख़ास नहीं है। मध्यांतर के बाद कुछ देर
रूचि जगाती है लेकिन अंत पर जाकर नियंत्रण खो बैठती है, वही सब
कुछ फटाफट निबटा देने की कवायद नजर आती है। निर्देशक बदले के गुस्से को पूरी
उग्रता और गहराई से उभार नहीं पाए। जिस फिल्म का नाम ही कहानी का इशारा करता हो
उसके दर्शक के लिए प्रतिशोध को अनुभव कर पाने के लिए कुछ ख़ास नहीं है। उसके बाद यह
दिखाया गया है कि बदला लेने के लिए नायक पंद्रह वर्ष इन्तजार करता है। पंद्रह साल
बाद लिया जाने वाला बदला उस शिद्द्त से नहीं फिल्माया गया जिसकी उम्मीद थी। इस
फिल्म से इच्छाधारी नाग-नागिन की फिल्मों वाले बदले भी अच्छे लगते हैं। निर्देशक
को गलतफहमी थी कि वे हिंसा और बदले की भावना को कुछ ज्यादा ही उभारकर बता रहे हैं, इसलिए
फिल्म में नैतिक शिक्षा देने का प्रयास किया गया है जो कहानी को कमज़ोर ही बना देता
है। अश्विनी खालसेकर को जासूस की भूमिका दी गयी है, फिल्म देखकर आप
हैरान होते हैं कि जासूस के पात्र ने ऐसा क्या किया है जिसे जासूसी कहा जाए?
तो कुल मिला कर लब्बोलुबाब यह है कि फिल्म की
कहानी जरूर साधारण है, लेकिन बेहतरीन अभिनय और उम्दा
निर्देशन फिल्म को देखने लायक बनाता है। यह बात भी याद रहे कि यह एक एडल्ट फिल्म है| हिंसक है| यानी अगर आप वयस्क नहीं हैं तो
ये फिल्म आपको बिल्कुल नहीं देखनी चाहिए|
कुछ निर्देशक के बारे में
इस फिल्म के निर्देशक
श्री राम राघवन हैं|यह निर्देशक के साथ साथ लेखक भी हैं| वैसे तो इनको बहुत ज्यादा
तजुर्बा नहीं है| उन्होंने ‘एक हसीना थी’ ‘एजेंट विनोद’ और ‘जॉनी गद्दार’
जैसी उम्दा फिल्में बनाई हैं,
लेकिन अब तक बड़ी सफलता
उनसे दूर है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वे प्रतिभाशाली निर्देशक हैं।
इनका जन्म १९६३ में चेन्नई
में हुआ |उसके बाद वह पुणे में पले-बढ़े| Film and Television Institute of India (FTII), पुणे में शिक्षा प्राप्त की|जाने माने
निर्देशक राजकुमार हिरानी इनके ही बैच से थे| इन्होंने पहली फिल्म २००४
में “EK HASEENA THI” बनाई, जो एक डार्क थ्रिलर फिल्म है|उसके
बाद एक और थ्रिलर फिल्म ”जॉनी गद्दार” का निर्देशन किया|इनकी तीसरी फिल्म “एजेंट
विनोद” है जो एक स्पाई थ्रिलर फिल्म है|आलोचक कुछ भी कहें लेकिन मेरे अनुसार
इन्होंने बदलापुर करके ये दिखा दिया कि उन में भी कुछ हट कर करने की क्षमता है|
क्योंकि बदलापुर में बदले का जो तरीक़ा है वह दूसरी फिल्मों से बिलकुल अलग-थलग
है|इसमें राघवन ने दर्शकों के सामने सारे
कार्ड्स खोल दिए और इन कार्ड्स को किरदार कैसे खेलते हैं इसके जरिये रोमांच पैदा
किया है। दर्शक को फिल्म से जोड़ने में निर्देशक ने सफलता पाई है और दर्शकों के
दिमाग को उन्होंने व्यस्त रखता है। फिल्म देखते समय कई सवाल खड़े होते हैं और
ज्यादातर के जवाब मिलते हैं।
बोहोत खूब
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